श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
5. ध्यान करते समय साधक को यह ख्याल रखना चाहिए कि मन में कोई कार्य जमा न रहे अर्थात ‘अमुक कार्य करना है, अमुक स्थान पर जाना है, अमुक व्यक्ति से मिलना है, अमुक व्यक्ति मिलने के लिए आने वाला है, तो उसके साथ बात-चीत भी करनी है’ आदि कार्य जमा न रखे। इन कार्यों के संकल्प ध्यान को लगने नहीं देते। अतः ध्यान में शांतिचित्त होकर बैठना चाहिए। 6. ध्यान करते समय कभी संकल्प-विकल्प आ जाएँ, तो ‘अड़ंग बड़ंग स्वाहा’- ऐसा कहकर उनको दूर कर देंं अर्थात ‘स्वाहा’ कहकर संकल्प-विकल्प (अड़ंग-बड़ंग) की आहुति दे देंं। 7. सामने देखते हुए पलकों को कुछ देर बार-बार शीघ्रता से झपकाएँ और फिर नेत्र बंद कर लेंं। पलकें झपकाने से जैसे बाहर का दृश्य कटता है, ऐसे ही भीतर के संकल्प-विकल्प भी कट जाते हैं। 8. पहले नासिका से श्वास को दो-तीन बार जोर से बाहर निकाले और फिर अंत में जोर से (फुंकार के साथ) पूरे श्वास को बाहर निकालकर बाहर ही रोक देंं। जितनी देर श्वास रोक सके, उतनी देर रोककर फिर धीरे-धीरे श्वास लेते हुए स्वाभाविक श्वास लेने की स्थिति में जाएँ। इससे सभी संकल्प-विकल्प मिट जाते हैं। संबंध- चौबीसवें-पचीसवें श्लोकों में जिस ध्यानयोगी की उपरति का वर्णन किया गया, आगे के दो श्लोकों में उसकी अवस्था का वर्णन करते हुए उसके साधन का फल बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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