श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः । व्याख्या- ‘योगी नियतमानसः’- जिसका मन पर अधिकार है, वह ‘नियतमानसः’ है। साधक ‘नियत मानस’ तभी हो सकता है, जब उसके उद्देश्य में केवल परमात्मा ही रहते हैं। परमात्मा के सिवाय उसका और किसी से संबंध नहीं रहता। कारण कि जब तक उसका संबंध संसार के साथ बना रहता है, तब तक उसका मन नियत नहीं हो सकता। साधक से यह एक बड़ी गलती होती है कि वह अपने आपको गृहस्थ आदि मानता है और साधन ध्यानयोग का करता है। जिससे ध्यानयोग की सिद्धि जल्दी नहीं होती। अतः साधक को चाहिए कि वह अपने आपको गृहस्थ, साधु, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि किसी वर्णआश्रम का न मानकर ऐसा माने कि ‘मैं तो केवल ध्यान करने वाला हूँ। ध्यान से परमात्मा की प्राप्ति करना ही मेरा काम है। सांसारिक ऋद्धि-सिद्धि आदि को प्राप्त करना मेरा उद्देश्य ही नहीं।’ इस प्रकार अहंता का परिवर्तन होने पर मन स्वाभाविक ही नियत हो जाएगा; क्योंकि जहाँ अहंता होती है, वहाँ ही अंतःकरण और बहिःकरण की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। ‘युञ्जन्नेवं सदात्मानम्’- दसवें श्लोक के ‘योगी युञ्जीत सततम्’ पदों से लेकर चौदहवें श्लोक के ‘युक्त आसीत मत्परः’ पदों तक जितना ध्यान का, मन लगाने का वर्णन हुआ है, उस सबको यहाँ ‘एवम्’ पद से लेना चाहिए। ‘युञ्जन् आत्मानम्’ का तात्पर्य है कि मन को संसार से हटाकर परमात्मा में लगाते रहना चाहिए। ‘सदा’ का तात्पर्य है कि प्रतिदिन नियमित रूप से ध्यानयोग का अभ्यास करना चाहिए। कभी योग का अभ्यास किया और कभी नहीं किया- ऐसा करने से ध्यानयोग की सिद्धि जल्दी नहीं होती। दूसरा तात्पर्य यह है कि परमात्मा की प्राप्ति का लक्ष्य एकांत में अथवा व्यवहार में निरंत बना रहना चाहिए। ‘शांति निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति’- भगवान में जो वास्तविक स्थिति है, जिसको प्राप्त होने पर कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता, उसको यहाँ ‘निर्वाण परमा शांति’ कहा गया है। ध्यानयोगी ऐसी निर्वाणपरमा शांति को प्राप्त हो जाता है। एक ‘निर्विकल्प स्थिति’ होती है और एक ‘निर्विकल्प बोध’ होता है। ध्यानयोग में पहले निर्विकल्प स्थिति होती है, फिर उसके बाद निर्विकल्प बोध होता है। इसी निर्विकल्प बोध को यहाँ ‘निर्वाणपरमा शांति’ नाम से कहा गया है। शांति दो तरह की होती है- शांति और परमशांति। संसार के त्याग[1] से ‘शांति’ होती है और परमात्मतत्त्व की प्राप्ति होने पर ‘परमाशांति’ होती है। इसी परमाशांति को गीता में ‘नैष्ठि की शांति’[2], ‘शश्वच्छान्ति’[3] आदि नामों से और यहाँ निर्वाणपरमा शांति नाम से कहा गया है। संबंध- अब आगे के दो श्लोक में ध्यानयोग के लिए उपयोगी नियमों का क्रमशः व्यतिरेक और अन्यव रीति से वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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