श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पञ्चम अध्याय ‘नैव कुर्वत्र कारयन्’- सांख्ययोगी में कर्तृत्व और कारयितृत्व- दोनों ही नहीं होते अर्थात वह करने वाला भी नहीं होता और करने वाला भी नहीं होता। शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि से किञ्चिन्मात्र भी अहंता ममता का संबंध न होने के कारण सांख्ययोगी उनके द्वारा होने वाली क्रियाओं का कर्ता अपने को कैसे मान सकता है? अर्थात कभी नहीं मान सकता। इसी अध्याय के आठवें श्लोक में भी ‘नैव किंचित् करोमि’ पदों से यही बात कही गयी है। तेरहवें अध्याय के इकतीसवें श्लोक में भी भगवान ने ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति’ पदों से कहा है कि शरीर में रहते हुए भी यह अविनाशी आत्मा कुछ नहीं करता। यहाँ शंका होती है कि जीवात्मा स्वयं कोई कर्म नहीं करता; किंतु वह प्रेरक बनकर कर्म तो करवा सकता है? इसका समाधान यह है कि जैसे सूर्य भगवान का उदय होने पर संपूर्ण जगत में प्रकाश छा जाता है, लोग अपने-अपने कामों में लग जाते हैं, कोई खेती करता है, कोई वेदपाठ करता है, कोई व्यापार करता है आदि। परंतु सूर्य भगवान विहित या निषिद्ध किसी भी क्रिया के प्रेरक नहीं होते। उनसे सबको प्रकाशक मिलता है, पर उस प्रकाश का कोई सदुपयोग करे या दुरुपोग, इसमें सूर्य भगवान की कोई प्रेरणा नहीं है। यदि उनकी प्रेरणा होती तो पाप या पुण्य कर्मों का भागी भी उन्हीं को होना पड़ता। ऐसे ही चेतन तत्त्व से प्रकृति को सत्ता और शक्ति तो प्राप्ति होती है, पर वह किसी क्रिया का प्रेरक नहीं होता। यही बात भगवान ने यहाँ ‘न कारयन्’ पदों से कही है। ‘आस्ते सुखम्’- मनुष्यमात्र की स्वरूप में स्वाभाविक स्थिति है; परंतु वे अपनी स्थिति शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदि में मान लेते हैं, जिससे उन्हें इस स्वाभाविक स्थिति का अनुभव नहीं होता। परंतु सांख्ययोगी को निरंतर स्वरूप में अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव होता रहता है। स्वरूप सदा-सर्वदा सुख-स्वरूप है। वह सुख अखंड, एकरस और परिच्छिन्नता से रहित है। एक वस्तु की दूसरी वस्तु में जैसी स्थिति होती है, स्वरूप में वैसी स्थिति नहीं होती। कारण कि स्वरूप ज्यों-का-त्यों विद्यमान रहता है। उस स्वरूप में मनुष्य की स्थिति स्वतः स्वाभाविक है; अतः उसमें स्थित होने में कोई उद्योग नहीं है। स्वरूप को पहचानने पर एक स्वरूप वाला रह जाता है। पहचानमात्र को समझाने के लिए ही यहाँ ‘आस्ते’ पद का प्रयोग हुआ है। इसे ही चौदहवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक में ‘स्वस्थः’ पद से कहा गया है। यहाँ ‘आस्ते’ क्रिया जिस तत्त्व की सत्ता को प्रकट कर रही है, वह सब आधारों का आधार है। समस्त उत्पन्न तत्त्व उस अनुत्पन्न तत्त्व के आश्रित हैं। उस सर्वाधिष्ठानरूप तत्त्व को किसी आधार की आवश्यकता ही क्या है? उस स्वतः सिद्ध तत्त्व में स्वाभाविक स्थिति को ही यहाँ ‘आस्ते’ पद से कहा गया है। इसे ही आगे बीसवें श्लोक में ‘ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः’ पदों से कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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