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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय
परमात्मप्राप्ति चाहने वाले साधक को धन, मान, बड़ाई, आदर, आराम आदि पाने की इच्छा नहीं होती। इसलिये धन-मानादि के न मिलने पर उसे कोई चिंता नहीं होती और यदि प्रारब्धवश ये मिल जायँ तो उसे कोई प्रसन्नता नहीं होती। कारण कि उसका ध्येय केवल परमात्मा को प्राप्त करना ही होता है, धन मानादि को प्राप्त करना नहीं। इसलिये कर्तव्य रूप से प्राप्त लौकिक कार्य भी उसके द्वारा सुचारू रूप से पवित्रता पूर्वक होते हैं। परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य होने से उसके सभी कर्म परमात्मा के लिये ही होते हैं। जैसे, धन प्राप्ति का ध्येय होने पर व्यापारी आराम का त्याग करता है और कष्ट सहता है और जैसे डॉक्टर द्वारा फोड़े पर चीरा लगाते समय ‘इसका परिणाम अच्छा होगा’ इस तरफ दृष्टि रहने से रोगी का अंतःकरण प्रसन्न रहता है, ऐसे ही परमात्मप्राप्ति का लक्ष्य रहने से संसार में पराजय, हानि, कष्ट आदि प्राप्त होने पर भी साधक के अंतःकरण में स्वाभाविक प्रसन्नता रहती है। अनुकूल-प्रतिकूल आदि मात्र परिस्थितियाँ उसके लिये साधन-सामग्री होती हैं।
जब साधक अपना कल्याण करने का ही दृढ़ निश्चय करके स्वधर्म[1] के पालन में तत्परतापूर्वक लग जाता है, तब कोई कष्ट, दुःख कठिनाई आदि आने पर भी वह स्वधर्म से विचलित नहीं होता। इतना ही नहीं, वह कष्ट, दुःख आदि उसके लिये तपस्या के रूप में तथा प्रसन्नता को देने वाला होता है।
शरीर को ‘मैं’ और ‘मेरा’ मानने से ही संसार में रागद्वेष होते हैं। राग द्वेष के रहने पर मनुष्य को स्वधर्म-परधर्म का ज्ञान नहीं होता। अगर शरीर ‘मैं’[2] होता तो ‘मैं’ के रहते हुए शरीर भी रहता और शरीर के न रहने पर ‘मैं’ भी न रहता। अगर शरीर ‘मेरा’ होता तो इसे पाने के बाद और कुछ पाने की इच्छा न रहती। अगर इच्छा रहती है तो सिद्ध हुआ कि वास्तव में ‘मेरी’[3] वस्तु अभी नहीं मिली और मिली हुई वस्तु[4] ‘मेरी’ नहीं है। शरीर को साथ लाये नहीं, साथ ले जा सकते नहीं, उसमें इच्छानुसार परिवर्तन कर सकते नहीं, फिर वह ‘मेरा’ कैसे? इस प्रकार ‘शरीर मैं नहीं और मेरा नहीं’ इसका ज्ञान[5] सभी साधकों में रहता है। परंतु इस ज्ञान को महत्त्त्व न देने से उनके राग-द्वेष नहीं मिटते। अगर शरीर में कभी मैं-पन मेरा पन दीख भी जाय, तो भी साधक को उसे महत्त्त्व न देकर अपने विवेक को ही महत्त्त्व देना चाहिये अर्थात ‘शरीर मैं नहीं और मेरा नहीं’ इसी बात पर दृढ़ रहना चाहिये। अपने विवेक को महत्त्व देने से वास्तविक तत्त्व का बोध हो जाता है। बोध होने पर रागद्वेष नहीं रहते। रागद्वेष न रहने पर अंतःकरण में स्वधर्म परधर्म का ज्ञान स्वतः प्रकट होता है और उसके अनुसार स्वतः चेष्टा होती है।
‘परधर्मो भयावहः’- यद्यपि परधर्म का पालन वर्तमान में सुगम दीखता है, तथापि परिणाम में वह सिद्धांत से भयावह है। यदि मनुष्य ‘स्वार्थभाव’ का त्याग करके परहित के लिये स्वधर्म का पालन करे, तो उसके लिये कहीं कोई भय नहीं है।
शंका- अठाहरवें अध्याय के बयालीसवें, तैंतालीसवें और चौवालीसवें श्लोक में क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के स्वाभाविक कर्मों का वर्णन करके भगवान ने सैंतालीवसें श्लोक के पूर्वार्ध में भी यही बात[6] कही है। अतः जब यहाँ[7] दूसरे के स्वाभाविक कर्म को भयावह कहा गया है, तब अठारहवें अध्याय के बयालीसवें श्लोक में कहे ब्राह्मण के ‘स्वाभाविक कर्म’ भी दूसरों[8] के लिये भयावह होने चाहिये, जबकि शास्त्रों में सभी मनुष्यों को उनका पालन करने की आज्ञा दी गयी है।
समाधान- मन का निग्रह, इंद्रियों का दमन आदि तो ‘सामान्य’ धर्म है[9], जिनका पालन सभी को करना चाहिये; क्योंकि ये सभी के स्वधर्म हैं। ये सामान्य धर्म ब्राह्मण के लिये ‘स्वाभाविक कर्म’ इसलिये हैं कि इनका पालन करने में उन्हें परिश्रम नहीं होता; परंतु दूसरे वर्णों को इनका पालन करने में थोड़ा परिश्रम हो सकता है। स्वाभाविक कर्म और सामान्य धर्म- दोनों ही ‘स्वधर्म’ के अंतर्गत आते हैं। सामान्य धर्म के सिवाय अपने स्वाभाविक कर्म में पाप दीखते हुए भी वास्तव में पाप नहीं होता; जैसे- केवल अपन कर्तव्य समझकर[10] शूरवीरता पूर्वक युद्ध करना क्षत्रिय का स्वाभाविक कर्म होने से इसमें पाप दीखते हुए भी वास्तव में पाप नहीं होता- ‘स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्रोन्ति किल्बिषम्’।[11]
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