श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय यहाँ शंका हो सकती है कि कामना के बिना कर्मों में प्रवृत्ति कैसे होगी? इसका समाधान यह है कि कामना की पूर्ति और निवृत्ति- दोनों के लिये कर्मों में प्रवृत्ति होती है। साधारण मनुष्य कामना की पूर्ति के लिये कर्मों में प्रवृत्त होते हैं और साधक आत्म शुद्धि हेतु कामना की निवृत्ति के लिये।[1] वास्तव में कर्मों में प्रवृत्ति कामना की निवृत्ति के लिये ही है, कामना की पूर्ति के लिये नहीं। मनुष्य शरीर उद्देश्य की पूर्ति के लिये ही मिला है। उद्देश्य की पूर्ति होने पर कुछ भी करना शेष नहीं रहता। कामना पूर्ति के लिये कर्मों में प्रवृत्ति उन्हीं मनुष्यों की होती है, जो अपने वास्तविक उद्देश्य[2] को भूले हुए हैं। ऐसे मनुष्यों को भगवान ने ‘कृपण’[3] कहा है- ‘कृपणाः फलहेतवः’।[4] इसके विपरीत जो मनुष्य उद्देश्य को सामने रखकर[5] कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। उन्हें भगवान ने ‘मनीषी’[6] कहा है- ‘फलं त्यक्त्त्वा मनीषिणः’।[7] सेवा, स्वरूप बोध और भगवत्प्राप्ति का भाव ही कामना है। अतः कामना के बिना कर्मों में प्रवृत्ति नहीं होती- ऐसा मानना भूल है। उद्देश्य की पूर्ति के लिये भी कर्म सुचारू रूप से होते हैं। अपने अंशी परमात्मा से विमुख होकर संसार[8] से अपना संबंध मान लेने से ही आवश्यकता और कामना- दोनों की उत्पत्ति होती है। संसार से माने हुए संबंध का सर्वथा त्याग होन पर आवश्यकता की पूर्ति और कामना की निवृत्ति हो जाती है। ‘निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः’- संपूर्ण कर्मों और पदार्थों[9] को भगवदर्पण करने के बाद भी कामना, ममता और संताप का कुछ अंश शेष रह जाता है। उदाहरणार्थ- हमने किसी को पुस्तक दी। उसे वह पुस्तक पढ़ते हुए देखकर हमारे मन में ऐसा भाव आ जाता है कि वह मेरी पुस्तक पढ़ रहा है। यही आंशिक ममता है, जो पुस्तक अर्पण करने के बाद भी शेष है। इस अंश का त्याग करने के लिये भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तू नयी वस्तु की ‘कामना’ मत कर, प्राप्त वस्तु में ‘ममता’ मत कर, और नष्ट वस्तु का ‘संताप’ मत कर। सब कुछ मेरे अर्पण करने की कसौटी यह है कि कामना, ममता और संताप का अंश भी न रहे। जिन साधकों को सब कुछ भगवदर्पण करने के बाद भी पूर्व संस्कारवश शरीरादि पदार्थों की कामना, ममता तथा संताप दीखते हैं, उन्हें कभी निराश नहीं होना चाहिये। कारण कि जिसमें कामना दिखती है, वही कामनारहित होता है; जिसमें ममता दीखती है, वही ममतारहित होता है और जिसमें संताप दीखता है, वही संतापरहित होता है। इसी प्रकार जो देह को ‘अहम्’[10] मानता है, वही विदेह[11] होता है। अतः मनुष्यमात्र कामना, ममता और संताप रहित होने का पूरा अधिकारी है। गीता में ‘ज्वर’ शब्द केवल यहीं आया है। युद्ध में कौटुम्बिक स्नेह आदि से संताप होने की संभावना रहती है। अतः युद्धरूप कर्तव्य कर्म करते समय विशेष सावधान रहने के लिये भगवान ‘विगतज्वरः’ पद देकर अर्जुन से कहते हैं कि तू संतापरहित होकर युद्धरूप कर्तव्य कर्म को कर। अर्जुन के सामने युद्ध के रूप में कर्तव्य कर्म था, इसलिये भगवान ‘युध्यस्व’ पद से उन्हें युद्ध करने की आज्ञा देते हैं। इसमें भगवान का तात्पर्य युद्ध करने से नहीं, प्रत्युत कर्तव्य कर्म करने से है। इसलिये समय-समय पर जो कर्तव्य कर्म सामने आ जाय, उसे साधक को निष्काम, निर्मम तथा निःसंताप होकर भगवदर्पण बुद्धि से करना चाहिये। उसके परिणाम[12] की तरफ नहीं देखना चाहिये। सिद्धि-असिद्धि, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि में सम रहना ‘विगतज्वर’ होना है; क्योंकि अनुकूलता से होने वाली प्रसन्नता और प्रतिकूलता से होने वाली उद्विग्नता- दोनों ही ज्वर[13] हैं। राग-द्वेष, हर्ष-शोक, काम-क्रोध आदि विकार भी ज्वर हैं। संक्षेप में राग-द्वेष, चिंता, उद्वेग, हलचल आदि जितनी भी मानसिक विकृतियाँ[14] हैं, वे सब ज्वर हैं और उनसे रहित होना ही ‘विगतज्वरः’ पद का तात्पर्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 5।11
- ↑ नित्यतत्त्व परमात्मा की प्राप्ति
- ↑ दीन या दया का पात्र
- ↑ गीता 2।49
- ↑ कामना की निवृत्ति के लिये
- ↑ बुद्धिमान या ज्ञानी
- ↑ गीता 2।51
- ↑ जड़ता
- ↑ कर्म सामग्री
- ↑ मैं
- ↑ अहंतारहित
- ↑ सिद्धि या असिद्धि
- ↑ संताप
- ↑ विकार
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