श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय अर्पण करने के बाद फिर शरीरादि पदार्थ अपने प्रतीत नहीं होने चाहिये। यदि अपने प्रतीत होते हैं तो वास्तव में अर्पण हुआ ही नहीं। इसीलिये भगवान ने विवेक-विचारयुक्त चित्त से अर्पण करने के लिए कहा है, जिससे यह वास्तविकता ठीक तरह से समझ में आ जाय कि ये पदार्थ भगवान के ही हैं, अपन हैं ही नहीं। भगवान के अर्पण की बात ऐसी विलक्षण है कि किसी तरह से[1] अर्पण किया जाय तो भी लाभ ही लाभ है। कारण कि कर्म और वस्तुएं अपनी हैं ही नहीं। कर्मों के करने के बाद भी उनका अर्पण किया जा सकता है, पर वास्तविक अर्पण पदार्थों और कर्मों से संबंध विच्छेद होने पर ही होता है। पदार्थों और कर्मों से संबंध विच्छेद तभी होता है, जब यह बात ठीक-ठीक अनुभव में आ जाय कि करण[2], उपकरण[3], कर्म और ‘स्वयं’- ये सब भगवान के ही हैं। साधक से प्रायः यह भूल होती है कि वह उपकरणों को तो भगवान का मानने की चेष्टा करता है, पर ‘करण तथा स्वयं भी भगवान के हैं’- इस पर ध्यान नहीं देता। इसीलिये उसका अर्पण अधूरा रह जाता है। अतः साधक को करण, उपकरण, क्रिया और ‘स्वयं’- सभी को एकमात्र भगवान का ही मान लेना चाहिये, जो वास्तव में उन्हीं के हैं। कर्मों और पदार्थों का स्वरूप से त्याग करना अर्पण नहीं है। भगवान की वस्तु को भगवान की ही मानना वास्तविक अर्पण है। जो मनुष्य वस्तुओं को अपनी मानते हुए भगवान के अर्पण करता है, उसके बदले में भगवान बहुत वस्तुएँ देते हैं; जैसे- पृथ्वी में जितने बीज बोये जायँ, उससे कई गुणा अधिक अन्न पृथ्वी देती है; पर कई गुणा मिलने पर भी वह सीमित ही मिलता है। परंतु जो वस्तु को अपनी न मानकर[4] भगवान के अर्पण करता है, भगवान उसे अपने-आपको देते हैं और ऋणी भी हो जाते हैं। तात्पर्य है कि वस्तु को अपनी मानकर देने से[5] उस वस्तु का मूल्य वस्तु में ही मिलता है और अपनी न मानकर देने से स्वयं भगवान मिलते हैं। वास्तविक अर्पण से भगवान अत्यंत प्रसन्न होते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि अर्पण करने से भगवान को कोई सहायता मिलती है; परंतु अर्पण करने वाला कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है और इसी में भगवान की प्रसन्नता है। जैसे छोटा बालक आंगन में पड़ी हुई चाबी पिताजी को सौंप देता है तो पिताजी प्रसन्न हो जाते हैं, जबकि छोटा बालक भी पिताजी का है, आँगन भी पिताजी का है और चाबी भी पिताजी का है, पर वास्तव में पिताजी चाबी के मिलने से नहीं, प्रत्युत बालक का[6] भाव देखकर प्रसन्न होते हैं और हाथ ऊँचा करके बालक से कहते हैं कि तू इतना बड़ा हो जा ! अर्थात उसे अपने से भी ऊँचा[7] बना लेते हैं। इसी प्रकार संपूर्ण पदार्थ, शरीर तथा शरीरी[8] भगवान के ही हैं; अतः उन पर से अपनापन हटाने और उन्हें भगवान के अर्पण करने का भाव देखकर ही वे[9] प्रसन्न हो जाते हैं और उसके ऋणी हो जाते हैं। परमात्मा ने मनुष्य शरीर की रचना बड़े विचित्र ढंग से की है। मनुष्य के जीवन-निर्वाह और साधन के लिये जो-जो आवश्यक सामग्री है, वह उसे प्रचुर मात्रा में प्राप्त है। उसमें भगवत्प्रदत्त विवेक भी विद्यमान है। उस विवेक को महत्त्व न देकर जब मनुष्य प्राप्त वस्तुओं ममता तथा अप्राप्त वस्तुओं की कामना करने लगता है, तब वह जन्म मरण के बंधन में बँध जाता है। वर्तमान में जो वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, योग्यता, शक्ति, शरीर, इंद्रियाँ, मन, प्राण, बुद्धि आदि मिले हुए दीखते हैं, वे पहले भी हमारे पास नहीं थे और बाद में भी सदा हमारे पास नहीं थे और बाद में भी सदा हमारे पास नहीं रहेंगे; क्योंकि वे कभी एकरूप नहीं रहते, प्रतिक्षण बदलते रहते हैं, इस वास्तविकता को मनुष्य जानता है। यदि मनुष्य जैसा जानता है, वैसा ही मान ले और वैसा ही आचरण में ले आये तो उसका उद्धार होने में किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं है। जैसा जानता है, वैसा मान लेने का तात्पर्य यह है कि शरीरादि पदार्थों को अपना और अपने लिये न माने, उनके आश्रित न रहे और उन्हें महत्त्व देकर उनकी पराधीनता स्वीकार न करे। पदार्थों को महत्त्व देना महान भूल है। उनकी प्राप्ति से अपने को कृतार्थ मानना महान भूल है। उनकी प्राप्ति से अपने को कृतार्थ मानना महान बंधन है। नाशवान पदार्थों को महत्त्व देने से ही उनकी नयी-नयी कामनाएं उत्पन्न होती है। कामना संपूर्ण पापों, तापों, दुःखों, अनर्थों, नरकों आदि की जड़ है। कामना से पदार्थ मिलते नहीं और प्रारब्धवशात मिल भी जायँ तो टिकते नहीं। कारण कि पदार्थ आने जाने वाले हैं और ‘स्वयं’ सदा रहने वाला है। अतः कामना का त्याग करके मनुष्य को कर्तव्य-कर्म का पालन करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उकताकर भी
- ↑ शरीरादि
- ↑ सांसारिक पदार्थ
- ↑ भगवान ही मानते हुए
- ↑ अंतःकरण में वस्तु का महत्त्व होने से
- ↑ देने का
- ↑ बड़ा
- ↑ स्वयं
- ↑ भगवान
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