श्रीमद्भगवद्गीता -रामसुखदास अध्याय 3 पृ. 166

Prev.png
श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय

अर्पण करने के बाद फिर शरीरादि पदार्थ अपने प्रतीत नहीं होने चाहिये। यदि अपने प्रतीत होते हैं तो वास्तव में अर्पण हुआ ही नहीं। इसीलिये भगवान ने विवेक-विचारयुक्त चित्त से अर्पण करने के लिए कहा है, जिससे यह वास्तविकता ठीक तरह से समझ में आ जाय कि ये पदार्थ भगवान के ही हैं, अपन हैं ही नहीं।

भगवान के अर्पण की बात ऐसी विलक्षण है कि किसी तरह से[1] अर्पण किया जाय तो भी लाभ ही लाभ है। कारण कि कर्म और वस्तुएं अपनी हैं ही नहीं। कर्मों के करने के बाद भी उनका अर्पण किया जा सकता है, पर वास्तविक अर्पण पदार्थों और कर्मों से संबंध विच्छेद होने पर ही होता है। पदार्थों और कर्मों से संबंध विच्छेद तभी होता है, जब यह बात ठीक-ठीक अनुभव में आ जाय कि करण[2], उपकरण[3], कर्म और ‘स्वयं’- ये सब भगवान के ही हैं। साधक से प्रायः यह भूल होती है कि वह उपकरणों को तो भगवान का मानने की चेष्टा करता है, पर ‘करण तथा स्वयं भी भगवान के हैं’- इस पर ध्यान नहीं देता। इसीलिये उसका अर्पण अधूरा रह जाता है। अतः साधक को करण, उपकरण, क्रिया और ‘स्वयं’- सभी को एकमात्र भगवान का ही मान लेना चाहिये, जो वास्तव में उन्हीं के हैं।

कर्मों और पदार्थों का स्वरूप से त्याग करना अर्पण नहीं है। भगवान की वस्तु को भगवान की ही मानना वास्तविक अर्पण है। जो मनुष्य वस्तुओं को अपनी मानते हुए भगवान के अर्पण करता है, उसके बदले में भगवान बहुत वस्तुएँ देते हैं; जैसे- पृथ्वी में जितने बीज बोये जायँ, उससे कई गुणा अधिक अन्न पृथ्वी देती है; पर कई गुणा मिलने पर भी वह सीमित ही मिलता है। परंतु जो वस्तु को अपनी न मानकर[4] भगवान के अर्पण करता है, भगवान उसे अपने-आपको देते हैं और ऋणी भी हो जाते हैं। तात्पर्य है कि वस्तु को अपनी मानकर देने से[5] उस वस्तु का मूल्य वस्तु में ही मिलता है और अपनी न मानकर देने से स्वयं भगवान मिलते हैं। वास्तविक अर्पण से भगवान अत्यंत प्रसन्न होते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि अर्पण करने से भगवान को कोई सहायता मिलती है; परंतु अर्पण करने वाला कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है और इसी में भगवान की प्रसन्नता है। जैसे छोटा बालक आंगन में पड़ी हुई चाबी पिताजी को सौंप देता है तो पिताजी प्रसन्न हो जाते हैं, जबकि छोटा बालक भी पिताजी का है, आँगन भी पिताजी का है और चाबी भी पिताजी का है, पर वास्तव में पिताजी चाबी के मिलने से नहीं, प्रत्युत बालक का[6] भाव देखकर प्रसन्न होते हैं और हाथ ऊँचा करके बालक से कहते हैं कि तू इतना बड़ा हो जा ! अर्थात उसे अपने से भी ऊँचा[7] बना लेते हैं। इसी प्रकार संपूर्ण पदार्थ, शरीर तथा शरीरी[8] भगवान के ही हैं; अतः उन पर से अपनापन हटाने और उन्हें भगवान के अर्पण करने का भाव देखकर ही वे[9] प्रसन्न हो जाते हैं और उसके ऋणी हो जाते हैं।

कामना-संबंधी विशेष बात

परमात्मा ने मनुष्य शरीर की रचना बड़े विचित्र ढंग से की है। मनुष्य के जीवन-निर्वाह और साधन के लिये जो-जो आवश्यक सामग्री है, वह उसे प्रचुर मात्रा में प्राप्त है। उसमें भगवत्प्रदत्त विवेक भी विद्यमान है। उस विवेक को महत्त्व न देकर जब मनुष्य प्राप्त वस्तुओं ममता तथा अप्राप्त वस्तुओं की कामना करने लगता है, तब वह जन्म मरण के बंधन में बँध जाता है। वर्तमान में जो वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, योग्यता, शक्ति, शरीर, इंद्रियाँ, मन, प्राण, बुद्धि आदि मिले हुए दीखते हैं, वे पहले भी हमारे पास नहीं थे और बाद में भी सदा हमारे पास नहीं थे और बाद में भी सदा हमारे पास नहीं रहेंगे; क्योंकि वे कभी एकरूप नहीं रहते, प्रतिक्षण बदलते रहते हैं, इस वास्तविकता को मनुष्य जानता है। यदि मनुष्य जैसा जानता है, वैसा ही मान ले और वैसा ही आचरण में ले आये तो उसका उद्धार होने में किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं है। जैसा जानता है, वैसा मान लेने का तात्पर्य यह है कि शरीरादि पदार्थों को अपना और अपने लिये न माने, उनके आश्रित न रहे और उन्हें महत्त्व देकर उनकी पराधीनता स्वीकार न करे। पदार्थों को महत्त्व देना महान भूल है। उनकी प्राप्ति से अपने को कृतार्थ मानना महान भूल है। उनकी प्राप्ति से अपने को कृतार्थ मानना महान बंधन है। नाशवान पदार्थों को महत्त्व देने से ही उनकी नयी-नयी कामनाएं उत्पन्न होती है। कामना संपूर्ण पापों, तापों, दुःखों, अनर्थों, नरकों आदि की जड़ है। कामना से पदार्थ मिलते नहीं और प्रारब्धवशात मिल भी जायँ तो टिकते नहीं। कारण कि पदार्थ आने जाने वाले हैं और ‘स्वयं’ सदा रहने वाला है। अतः कामना का त्याग करके मनुष्य को कर्तव्य-कर्म का पालन करना चाहिये।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उकताकर भी
  2. शरीरादि
  3. सांसारिक पदार्थ
  4. भगवान ही मानते हुए
  5. अंतःकरण में वस्तु का महत्त्व होने से
  6. देने का
  7. बड़ा
  8. स्वयं
  9. भगवान

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
श्लोक संख्या विषय पृष्ठ संख्या
प्रथम अध्याय
1-11 पाण्डव और कौरव सेना के मुख्य महारथियों के नामों का वर्णन -
12-19 दोनों पक्षों की सेनाओं के शंख वादन का वर्णन 15
20-27 अर्जुन के द्वारा सेना-निरीक्षण 27
28-47 अर्जुन के द्वारा कायरता, शोक और पश्चात्तापयुक्त वचन कहना तथा संजय द्वारा शोकाविष्ट अर्जुन की अवस्था का वर्णन 39
पहले अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 50
द्वितीय अध्याय
1-10 अर्जुन की कायरता के विषय में संजय द्वारा भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद का वर्णन 1
11-30 सांख्ययोग का वर्णन 17
31-38 क्षात्रधर्म की दृष्टि से युद्ध करने की आवश्यकता का प्रतिपादन 52
39-53 कर्मयोग का वर्णन 61
54-72 स्थित प्रज्ञ के लक्षणों आदि का वर्णन 81
दूसरे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 104
तृतीय अध्याय
1-8 सांख्ययोग और कर्मयोग की दृष्टि से कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता का निरूपण 105
9-19 यक्ष और सृष्टिचक्र की परम्परा सुरक्षित रखने के लिये कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता का निरूपण 121
20-29 लोक संग्रह के लिये कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता का निरूपण 147
30-35 राग-द्वेषरहित होकर स्वधर्म के अनुसार कर्तव्य-कर्म करने की प्रेरणा 165
36-43 पापों के कारणभूत 'काम' को मारने की प्रेरणा 189
तीसरे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 210
चतुर्थ अध्याय
1-15 कर्मयोग की परम्परा और भगवान के जन्मों तथा कर्मों की दिव्यता का वर्णन 211
16-32 कर्मों के तत्त्व का और तदनुसार यज्ञों का वर्णन 256
33-42 ज्ञानयोग और कर्मयोग की प्रशंसा तथा प्रेरणा 288
चौथे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 306
पंचम अध्याय
1-6 सांख्यायोग तथा कर्मयोग की एकता का प्रतिपादन और कर्मयोग की प्रंशसा 307
7-12 सांख्ययोग और कर्मयोग के साधन का प्रकार 322
13-26 फल सहित सांख्ययोग का विषय 338
27-29 ध्यान और भक्ति का वर्णन 365
पाँचवे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 370
षष्ठ अध्याय
1-4 कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ मनुष्य के लक्षण 371
5-9 आत्मोद्धार के लिये प्रेरणा और सिद्ध कर्मयोग के लक्षण 382
10-15 आसन की विधि और फलसहित सगुण-साकार के ध्यान का वर्णन 397
16-23 नियमों का फल सहित स्वरूप के ध्यान का वर्णन 407
24-28 फलसहित निर्गुण-निराकार के ध्यान का वर्णन 422
29-32 सगुण और निर्गुण के ध्यान-योगियों का अनुभव 432
33-36 मन के विग्रह का विषय 441
37-47 योगभ्रष्ट की गति का वर्णन और भक्ति योगी की महिमा 450
छठे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 473
सप्तम अध्याय
1-7 भगवान के द्वारा समग्ररूप के वर्णन की प्रतिज्ञा करना तथा अपरा-परा प्रकतियों के संयोग से प्राणियों की उतपत्ति बताकर अपने को सबका मूल कारण बताना 474
8-12 कारण रूप से भगवान की विभूतियों का वर्णन 496
13-19 भगवान के शरण होने वालों का और शरण न होने वालों का वर्णन 508
20-23 अन्य देवताओं की उपासनाओं का फलसहित वर्णन 538
24-30 भगवान के प्रभाव को जानने वालों की निन्दा और जानने वालों की प्रशंसा तथा भगवान के समरूप का वर्णन 544
सातवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 566
अष्टम अध्याय
1-7 अर्जुन के सात प्रश्न और भगवान के द्वारा उनका उत्तर देते हुए सब के समय में अपना स्मरण करने की आज्ञा देना 567
8-16 सगुण-निराकार, निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार की उपासना फलसहित वर्णन 587
17-22 ब्रह्मलोक तक की अवधिका और भगवान की महत्ता तथा भक्ति का वर्णन 601
23-28 शुक्ल और कृष्ण गति का वर्णन उसको जानने वाले योगी की महिमा 609
आठवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 619
नवम अध्याय
1-6 प्रभाव सहित विज्ञान का वर्णन 621
7-10 महासर्ग और महाप्रलय का वर्णन 638
11-15 भगवान का तिरस्कार करने वाले एवं आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति का आश्रय लेने वालों का कथन तथा दैवी प्रकृति का आश्रय लेने वाले भक्तों के भजन का वर्णन 645
16-19 कार्य-कारण रूप से भगवत्स्वरूप विभूतियों का वर्णन 654
20-25 सकाम और निष्काम उपासना का फलसहित वर्णन 658
पदार्थों और क्रियाओं को भगवदर्पण करने का फल बताकर भक्ति के अधिकारियों का और भक्ति का वर्णन 669
नवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 704
दशम अध्याय
1-7 भगवान की विभूति और योग का कथन तथा उनको जानने की महिमा 705
8-11 फलसहित भगवद्भभक्ति और भगवत्कृपा का प्रभाव 719
12-18 अर्जुन के द्वारा भगवान की स्तुति और योग तथा विभूतियों को कहने के लिये प्रार्थना 728
19-42 भगवान के द्वारा अपनी विभूतियों का और योग का वर्णन 735
दसवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 769
एकादश अध्याय
1-8 विराट्‍रूप दिखाने के लिये अर्जुन की प्रार्थन और भगवान के द्वारा अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदान करना 771
9-14 संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विराट्‍ रूप का वर्णन 783
15-31 अर्जुन के द्वारा विराट् रूप को देखना और उसकी स्तुति करना 789
32-35 भगवान के द्वारा अपने अत्युग्र विराट रूप का परिचय और युद्ध की आज्ञा 809
36-46 अर्जुन के द्वारा विराटरूप भगवान की स्तुति-प्रार्थना 817
47-50 भगवान के द्वारा विराटरूप के दर्शन की दुर्लभता बताना और अर्जुन को आश्वासन देना 831
51-55 भगवान के द्वारा चतुर्भुज रूप की महत्ता और उसके दर्शन का उपाय बताना 839
ग्यारहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 848
द्वादश अध्याय
1-12 सगुण और निर्गुण उपासकों की श्रेष्ठता का निर्णय और भगत्प्राप्ति के चार साधनों का वर्णन 850
13-20 सिद्ध भक्तों के उन्तालीस लक्षणों का वर्णन 892
बारहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 918
त्रयोदश अध्याय
1-18 क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा), ज्ञान और ज्ञेय (परमात्मा) का भक्ति-सहित विवेचना 920
19-34 ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विवेचन 967
तेरहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 992
चतुर्दश अध्याय
1-4 ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति 993
5-18 सत्त्व रज और तम इन तीनों गुणों का विवेचन 999
19-27 भगवत्प्राप्ति का उपाय एवं गुणातीत पुरुष के लक्षण 1028
चौदहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1044
पंचदश अध्याय
1-6 संसार का वृक्ष तथा उसका छेदन करके भगवान के शरण होने का और भगवद्धाम का वर्णन 1045
7-11 जीवात्मा का स्वरूप तथा उसे जानने वाले और न जानने वाले का वर्णन 1071
12-15 भगवान के प्रभाव का वर्णन 1096
16-20 क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम का वर्णन तथा अध्याय का उपसंहार 1110
पंद्रहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1122
षोडश अध्याय
1-5 फलसहित दैवी और आसुरी सम्पत्ति का वर्णन 1123
6-8 सत्कर्मों से विमुख हुए आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्यों की मान्याताओं का कथन 1164
9-16 आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्यों के दुराचारों और मनोरथों का फलसहित वर्णन 1173
17-20 आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्यों के दुर्भाव और दुर्गति का वर्णन 1187
21-24 आसुरी सम्पत्ति के मूलभूत दोष काम, क्रोध और लोभ से रहित होकर शास्त्र विधि के अनुसार कर्म करने की प्रेरणा 1197
सोलहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1204
सप्तदश अध्याय
1-6 तीन प्रकार की श्रद्धा का और आसुर निश्चय वाले मनुष्यों का वर्णन 1205
7-10 सात्त्विक, राजस और तामस आहारी की रुचि का वर्णन 1218
11-22 यज्ञ, तप और दान के तीन-तीन भेदों का वर्णन 1230
23-28 'ॐ तत्सत्' के प्रयोग की व्याख्या और असत्- कर्म का वर्णन 1254
सत्रहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1263
अष्टादश अध्याय
1-12 सन्यास के विषय में मतान्तर और कर्मयोग का वर्णन 1264
13-40 सांख्ययोग का वर्णन 1310
41-48 कर्मयोग का भक्तिसहित वर्णन 1364
49-55 सांख्ययोग का वर्णन 1408
56-66 भगवद्भभक्ति का वर्णन 1418
67-68 श्रीमद्भगवदद्गीता की महिमा 1490
अठारहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1523
गीता का परिमाण और पूर्ण शरणागति 1524
आरती अंतिम पृष्ठ

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः