श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय संबंध- किसी बात को पुष्ट करना हो तो पहले उसके दोनों पक्ष सामने रखकर फिर उसको पुष्ट किया जाता है। यहाँ भगवान निष्काम भाव को पुष्ट करना चाहते हैं; अतः पीछे के तीन श्लोकों में सकाम भाव वालों का वर्णन करके अब आगे के श्लोक में निष्काम होने की प्रेरणा करते हैं। त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । व्याख्या- 'त्रैगुण्यविषया वेदाः'- यहाँ वेदों से तात्पर्य वेदों के उस अंश से है, जिसमें तीनों गुणों का और तीनों गुणों के कार्य स्वर्गादि भोग-भूमियों का वर्णन है। यहाँ उपर्युक्त पदों का तात्पर्य वेदों की निंदा में नहीं है, प्रत्युत निष्कामभाव की महिमा में है। जैसे हीरे के वर्णन के साथ-साथ काँच का वर्णन किया जाय तो उसका तात्पर्य काँच की निंदा करने में नहीं है, प्रत्युत हीरे की महिमा बताने में है। ऐसे ही यहाँ निष्काम भाव की महिमा बताने के लिए ही वेदों के सकाम भाव का वर्णन आया है, निंदा के लिए नहीं। वेद केवल तीनों गुणों का कार्य संसार का ही वर्णन करने वाले हैं, ऐसी बात भी नहीं है। वेदों में परमात्मा और उनकी प्राप्ति के साधनों का भी वर्णन हुआ है। ‘निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन’- हे अर्जुन ! तू तीनों गुणों के कार्यरूप संसार की इच्छा का त्याग करके असंसारी बन जा अर्थात संसार से ऊँचा उठ जा। ‘निर्द्वद्वः’- संसार से ऊँचा उठने के लिए राग-द्वेष आदि द्वंद्वों से रहित होने की बड़ी भारी आवश्यकता है; क्योंकि ये ही वास्तव में मनुष्य के शत्रु हैं अर्थात उसको संसार में फँसाने वाले हैं।[1] [2] इसलिए तू संपूर्ण द्वंद्वों से रहित हो जा। यहाँ भगवान अर्जुन को निर्द्वन्द्व होने की आज्ञा क्यों दे रहे हैं? कारण कि द्वंद्वों से सम्मोह होता है, संसार में फँसावट होती है।[3] जब साधक निर्द्वंद्व होता है, तभी वह दृढ़ होकर भजन कर सकता है।[4] निर्द्वंद्व होने से साधक सुखपूर्वक संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है।[5] निर्द्वंद्व होने से मूढ़ता चली जाती है।[6] निर्द्वंद्व होने से साधक कर्म करता हुआ भी बँधता नहीं।[7] तात्पर्य है कि साधक की साधना निर्द्वंद्व होने से ही दृढ़ होती है। इसलिए भगवान अर्जुन को निर्द्वंद्व होने की आज्ञा देते हैं। दूसरी बात, अगर संसार में किसी भी वस्तु, व्यक्ति आदि में राग होगा, तो दूसरी वस्तु, व्यक्ति आदि में द्वेष हो जाएगा- यह नियम है। ऐसा होने पर भगवान की उपेक्षा हो जाएगी- यह भी एक प्रकार का द्वेष है। परंतु जब साधक का भगवान में प्रेम हो जाएगा, तब संसार से द्वेष नहीं होगा, प्रत्युत संसार से स्वाभाविक उपरति हो जाएगी। उपरति होने की पहली अवस्था यह होगी कि साधक का प्रतिकूलता में द्वेष नहीं होगा; किंतु उसकी उपेक्षा होगी। उपेक्षा के बाद उदासीनता होगी और उदासीनता के बाद उपरति होगी। उपरति में राग-द्वेष सर्वथा मिट जाते हैं। इस क्रम में अंगर सूक्ष्मता से देखा जाए तो उपेक्षा में राग-द्वेष के संस्कार रहते हैं, उदासीनता में राग-द्वेष की सत्ता रहती है, और उपरति में राग-द्वेष के न संस्कार रहते हैं, न सत्ता रहती है; किंतु राग-द्वेष का सर्वथा अभाव हो जाता है। 'नित्यसत्त्वस्थः'- द्वंद्वों से रहित होने का उपाय यह है कि जो नित्य-निरंतर रहने वाला सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा है, तू उसी में निरंतर स्थित रह। 'निर्योगक्षेमः'[8]- तू योग और क्षेम की[9] इच्छा भी मत रख; क्योंकि जो केवल मेरे परायण होते हैं, उनके योगक्षेम का वहन मैं स्वयं करता हूँ।[10] 'आत्मवान्'- तू केवल परमात्मा के परायण हो जा। एक परमात्म प्राप्ति का ही लक्ष्य रख। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 3।34
- ↑ एक ही विषय में, एक ही वस्तु में दो भाव कर लेना ‘द्वंद्व’ है। परंतु जहाँ विषय, वस्तु अलग-अलग होते हैं, वहाँ द्वंद्व नहीं होता; जैसे- ‘प्रकृति’ और ‘पुरुष’, ‘जड’ और ‘चेतन’- इन दोनों को अलग-अलग समझना द्वंद्व नहीं है। ऐसे ही संसार से विमुख होकर भगवान के सम्मुख हो जाना द्वंद्व नहीं है। परंतु केवल संसार में ही दो भाव (राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि) हो जाएँ, तो यह द्वंद्व हो जाता है और इसी द्वंद्व में मनुष्य फँसता है।
- ↑ गीता 7।27
- ↑ गीता 7।28
- ↑ गीता 5।3
- ↑ गीता 15।5
- ↑ गीता 4।22
- ↑ अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का नाम 'योग' है और प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम' है।
- ↑ यद्यपि यहाँ कर्मयोग का प्रकरण है, तथापि यहाँ 'निर्योगक्षेमः' पद भक्तियोग का वाचक मानना ठीक मालूम देता है। कारण कि भगवान ने अर्जुन को जगह-जगह भक्त होने के लिए आज्ञा दी है और अर्जुन को भक्तरूप से स्वीकार भी किया है (4।3)। भगवान ने अपने को भक्तों का योग-क्षेम वहन करने वाला भी बताया है (9।22)
- ↑ गीता 9।12
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