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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय
प्रकरण संबंधी विशेष बात
भगवान ने इकतीसवें श्लोक से अड़तीसवें श्लोक तक के आठ श्लोंकों में कई विचित्र भाव प्रकट किए हैं; जैसे-
- किसी को व्याख्यान देना हो और किसी विषय को समझाना हो तो भगवान इन आठ श्लोकों में उसकी कला बताते हैं। जैसे, कर्तव्य-कर्म करना और अकर्तव्य न करना- ऐसे विधि निषेध का व्याख्यान देना हो तो उसमें पहले विधि का, बीच में निषेध का और अंत में फिर विधि का वर्णन करके व्याख्यान समाप्त करना चाहिए। भगवान ने भी यहाँ पहले इकतीसवें-बत्तीसवें दो श्लोक में कर्तव्य-कर्म करने से लाभ का वर्णन किया, फिर बीच में तैंतीसवें से छत्तीसवें तक के चार श्लोकों में कर्तव्य-कर्म न करने से हानि का वर्णन किया और अंत में सैंतीसवें-अड़तीसवें दो श्लोकों में कर्तव्य-कर्म करने से लाभ का वर्णन करके कर्तव्य- कर्म करने की आज्ञा दी।
- पहले अध्याय में अर्जुन ने अपनी दृष्टि से जो दलीलें दी थीं, उनका भगवान ने आठ श्लोकों में समाधान किया है; जैसे अर्जुन कहते हैं- मैं युद्ध करने में कल्याण नहीं देखता हूँ[1], तो भगवान कहते हैं- क्षत्रिय के लिए धर्ममय युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याण का साधन नहीं है।[2] अर्जुन कहते हैं- युद्ध करके हम सुखी कैसे होंगे?[3], तो भगवान कहते हैं- जिन क्षत्रियों को ऐसा युद्ध मिल जाता है, वे ही क्षत्रिय सुखी हैं[4] अर्जुन कहते हैं- युद्ध के परिणाम में नरक की प्राप्ति होगी[5] तो भगवान कहते हैं- युद्ध करने से स्वर्ग की प्राप्ति होगी।[6] अर्जुन कहते हैं- युद्ध करने से पाप लगेगा[7], तो भगवान कहते हैं- युद्ध न करने से पाप लगेगा।[8] अर्जुन कहते हैं- युद्ध करने से परिणाम में धर्म का नाश होगा[9], तो भगवान कहते हैं- युद्ध न करने से धर्म का नाश होगा।[10]
- अर्जुन का यह आग्रह था कि युद्धरूपी घोर कर्म को छोड़कर भिक्षा से निर्वाह करना मेरे लिए श्रेयस्कर है[11], तो उनको भगवान ने युद्ध करने की आज्ञा दी[12]; और उद्धवजी के मन में भगवान के साथ रहने की इच्छा थी तो उनको भगवान ने उत्तराखंड में जाकर तप करने की आज्ञा दी।[13] इसका तात्पर्य यह हुआ कि अपने मन का आग्रह छोड़े बिना कल्याण नहीं होता। वह आग्रह चाहे किसी रीति का हो, पर वह उद्धार नहीं होने देता।
- भगवान ने इस अध्याय के दूसरे-तीसरे श्लोकों में जो बातें संक्षेप से कही थीं, उन्हीं को यहाँ विस्तार से कहा है, जैसे- वहाँ ‘अनार्यजुष्टम्’ कहा तो यहाँ ‘धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्’ कहा। वहाँ ‘अस्वर्ग्यम्’ कहा तो यहाँ ‘स्वर्गद्वारमपावृतम्’ कहा। वहाँ ‘अकीर्तिकरम्’ कहा, तो यहाँ ‘अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्’ कहा। वहाँ युद्ध के लिए आज्ञा दी- ‘त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप’, तो वही आज्ञा यहाँ देते हैं- ‘ततो युद्धाय युज्यस्व’।
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