श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । व्याख्या- [ अर्जुन को यह आशंका थी कि युद्ध में कुटुम्बियों को मारने से हमारे को पाप लग जायगा, पर भगवान यहाँ कहते हैं कि पाप का हेतु युद्ध नहीं है, प्रत्युत अपनी कामना है। अतः कामना का त्याग करके तू युद्ध के लिए खड़ा हो जा।] ‘सुखदुःखे समे......ततो युद्धाय युज्यस्व’- युद्ध में सबसे पहले जय और पराजय होती है, जय-पराजय का परिणाम होता है- लाभ और हानि तथा लाभ-हानि का परिणाम होता है- सुख और दुःख। जय पराजय में और लाभ-हानि में सुखी-दुःखी होना तेरा उद्देश्य नहीं है। तेरा उद्देश्य तो इन तीनों में सम होकर अपने कर्तव्य का पालन करना है। युद्ध में जय-पराजय लाभ-हानि और सुख-दु:ख तो होंगे ही। अत: तू पहले से यह विचार कर ले कि मुझे तो केवल अपने कर्तव्य का पालन करना है, जय-पराजय आदि से कुछ भी मतलब नहीं रखना है। फिर युद्ध करने से पाप नहीं लगेगा अर्थात संसार का बंधन नहीं होगा। सकाम और निष्काम- दोनों ही भावों से अपने कर्तव्य कर्म का पालन करना आवश्यक है। जिसका सकाम भाव है, उसको तो कर्तव्य कर्म के करने में आलस्य, प्रमाद बिलकुल नहीं करने चाहिये, प्रत्युत तत्परता से अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये। जिसका निष्काम भाव है, जो अपना कल्याण चाहता है, उसको भी तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये। सुख आता हुआ अच्छा लगता है और जाता हुआ बुरा लगता है तथा दुःख आता हुआ बुरा लगता है और जाता हुआ अच्छा लगता है। अतः इनमें कौन अच्छा है, कौन बुरा? अर्थात दोनों ही समान हैं, बराबर हैं। इस प्रकार सुख-दुःख में समबुद्धि रखते हुए तुझे अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये। तेरी किसी भी कर्म में सुख के लोभ से प्रवृत्ति न हो और दुःख के भय से निवृत्ति न हो। कर्मों में तेरी प्रवृत्ति और निवृत्ति शास्त्र के अनुसार ही हो।[1] ‘नैवं पापमवाप्स्यसि’- यहाँ ‘पाप’ शब्द पाप और पुण्य- दोनों का वाचक है, जिसका फल है- स्वर्ग और नरक की प्राप्ति रूप बंधन, जिससे मनुष्य अपने कल्याण से वञ्चित रह जाता है और बार-बार जन्मता-मरता रहता है। भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन ! समता में स्थित होकर युद्ध रूपी कर्तव्य कर्म करने से तुझे पाप और पुण्य- दोनों ही नहीं बाँधेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 16।24
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