श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय संबंध- पहले दृष्टान्तरूप से शरीरी की निर्विकारता का वर्णन करके अब आगे के तीन श्लोकों में उसी का प्रकारान्तर से वर्णन करते हैं। नैंन छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । व्याख्या- ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि’- इस शरीरी को शस्त्र नहीं काट सकते हैं; क्योंकि ये प्राकृत शस्त्र वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकते। जितने भी शास्त्र हैं, वे सभी पृथ्वी-तत्त्व से उत्पन्न होते हैं। यह पृथ्वी तत्त्व इस शरीरी में किसी तरह का कोई विकार नहीं पैदा कर सकता है। इतना ही नहीं, पृथ्वी तत्त्व इस शरीरी तक पहुँच ही नहीं सकता, फिर विकृति करने की बात तो दूर ही रही। ‘नैनं दहति पावकः’- अग्नि इस शरीरी को जला नहीं सकती; क्योंकि अग्नि वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकती। जब वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकती, तब उसके द्वारा जलाना कैसे संभव हो सकता है? तात्पर्य है कि अग्नि तत्त्व इस शरीर में कभी किसी तरह का विकार उत्पन्न कर ही नहीं सकता। ‘न चैनं क्लेदयन्त्यापः’- जल इसको गीला नहीं कर सकता; क्योंकि जल वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि जल तत्त्व इस शरीर में किसी प्रकार का विकार पैदा नहीं कर सकता। ‘न शोषयति मारुतः’- वायु इसको सुखा नहीं सकती अर्थात वायु में इस शरीरी को सुखाने की सामर्थ्य नहीं है; क्योंकि वायु वहाँ तक पहुँचती ही नहीं। तात्पर्य है कि वायु तत्त्व इस शरीरी में किसी तरह की विकृति पैदा नहीं कर सकता। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश- ये पाँच महाभूत कहलाते हैं। भगवान ने इनमें से चार ही महाभूतों की बात कही है कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु इस शरीरी में किसी तरह की विकृति नहीं कर सकते; परंतु पाँचवें महाभूत आकाश की कोई चर्चा ही नहीं की है। इसका कारण यह है कि आकाश में कोई भी क्रिया करने की शक्ति नही है। क्रिया[1] करने की शक्ति तो इन चार महाभूतों में ही है। आकाश तो इन सबको अवकाश मात्र देता है। पृथ्वी, जल, तेज और वायु- ये चारों तत्त्व आकाश से ही उत्पन्न होते हैं, पर व अपने कारणभूत आकाश में भी किसी तरह का विकार पैदा नहीं कर सकते अर्थात पृथ्वी आकाश का छेदन नहीं कर सकती, जल गीला नहीं कर सकता, अग्नि जला नहीं सकती और वायु सुखा नहीं सकती। जब ये चारों तत्त्व अपने कारणभूत आकाश को, आकाश के कारणभूत महत्तत्त्व को और महत्तत्त्व के कारणभूत प्रकृति को भी कोई क्षति नहीं पहुँचा सकते, तब प्रकृति से सर्वथा अतीत शरीरी तक ये पहुँच ही कैसे सकते हैं? इन गुणयुक्त पदार्थों की उस निर्गुण तत्त्व में पहुँच ही कैसे हो सकती है? नहीं हो सकती[2]। शरीरी नित्य तत्त्व है। पृथ्वी आदि चारों तत्त्वों को इसी से सत्ता-स्फूर्ति मिलती है। अतः जिससे इन तत्त्वों को सत्ता-स्फूर्ति मिलती है। उसको ये कैसे विकृत कर सकते हैं? यह शरीरी सर्वव्यापक है और पृथ्वी आदि चारों तत्त्व व्याप्य है अर्थात शरीरी के अंतर्गत हैं। अतः व्याप्य वस्तु व्यापक को कैसे नुकसान पहुँचा सकती है? उसको नुकसान पहुँचाना संभव ही नहीं है। यहाँ युद्ध का प्रसंग है। ‘ये सब संबंधी मर जाएंगे’- इस बात को लेकर अर्जुन शोक कर रहे हैं। अतः भगवान कहते हैं कि ये कैसे मर जाएंगे? क्योंकि वहाँ तक अस्त्र-शस्त्रों की क्रिया पहुँचती ही नहीं अर्थात शस्त्र के द्वारा शरीर कट जाने पर भी शरीरी नहीं कटता, अग्न्यस्र के द्वारा शरीर जल जाने पर भी शरीरी नहीं जलता, वरुणास्र के द्वारा शरीर गल जाने पर भी शरीरी नहीं गलता और वायव्यास्त्र के द्वारा शरीर सूख जाने पर भी शरीरी नहीं सूखता। तात्पर्य है कि अस्त्र-शस्त्रों के द्वारा शरीर मर जाने पर भी शरीरी नहीं मरता, प्रत्युत ज्यों का त्यों निर्विकार रहता है। अतः इसको लेकर शोक करना तेरी बिलकुल ही बेसमझी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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