श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय उनकी क्या दशा होगी! उनका भरण-पोषण कैसे होगा! उनकी सहायता कौन करेगा! आदि चिंता शोक कभी नहीं करने चाहिये; क्योंकि चिंता शोक करन से कोई लाभ नहीं है। मेरे शरीर के अंग शिथिल हो रहे हैं, मुख सूख रहा है आदि विकारों के पैदा होने में मूल कारण है- शरीर के साथ एकता मानना। कारण कि शरीर के साथ एकता मानने से ही शरीर का पालन-पोषण करने वालों के साथ अपनापन हो जाता है, और उस अपनेपन के कारण ही कुटुम्बियों के मरने की आशंका से अर्जुन के मन में चिंता-शोक हो रहे हैं, तथा चिंता-शोक से ही अर्जुन के शरीर में उपर्युक्त विकार प्रकट हो रहे हैं। इसमें भगवान ने ‘गतासून्’ और ‘अगतासून्’ के शोक को ही हेतु बताया है। जिनके प्राण चले गये हैं, वे ‘गतासून्’ हैं और जिनके प्राण नहीं चले गये हैं, वे ‘अगतासून्’ हैं। पिंड और जल न मिलने से पितरों का पतन हो जाता है[1]- यह अर्जुन की ‘गतासून्’ की चिंता है। और ‘जिनके लिए हम राज्य, भोग और सुख चाहते हैं, वे ही प्राणों की और धन की आशा छोड़कर युद्ध में खड़े हैं’[2]- यह अर्जुन की ‘अगतासून्’ की चिंता है। ये दोनों चिंताएं शरीर को लेकर ही हो रही हैं; अतः ये दोनों चिंताएँ धातुरूप से एक ही हैं। कारण कि ‘गतासून्’ और ‘अगतासून्’ दोनों ही नाशवान् हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज