श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय मनुष्य के सामने जन्मना-मरना, लाभ-हानि आदि के रूप में जो कुछ परिस्थिति आती है, वह प्रारब्ध का अर्थात अपने किये हुए कर्मों का ही फल है। उस अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर शोक करना, सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता ही है। कारण कि परिस्थिति चाहे अनुकूल आये, चाहे प्रतिकूल आये, उसका आरंभ और अंत होता है अर्थात वह परिस्थिति पहले भी नहीं थी और अंत में भी नहीं रहेगी। जो परिस्थिति आदि में और अंत में नहीं होती, वह बीच में एक क्षण भी स्थायी नहीं होती। अगर स्थायी होती तो मिटती कैसे? और मिटती है तो स्थायी कैसे? ऐसी प्रतिक्षण मिटने वाली अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर हर्ष-शोक करना, सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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1. श्लेष्माश्रु बान्धवैर्मुक्तं प्रेतो भुङ्क्ते यतोऽवशः।
तस्मात्र रोदितव्यं हि क्रियाः कार्याश्च शक्तितः।। (पंचतंत्र, मित्रभेद 365)
‘मृतात्मा को अपने बंधु-बांधवों के द्वारा त्यक्त कफयुक्त आँसुओं को विवश होकर खाना-पीना पड़ता है। इसलिये रोना नहीं चाहिए, प्रत्युत अपनी शक्ति के अनुसार मृतात्मा की और्ध्वेदैहिक क्रिया करनी चाहिये।'2. मृतानां बांधवा ये तु मुञ्चन्त्यश्रूणि भूतले।
पिबन्त्यश्रूणि तान्यद्धा मृताः प्रेताः परत्र वै।। (स्कन्दपुराण, ब्राह्म. सेतु. 48।42)‘मृतात्मा के बंधु-बान्धव भूतल पर जिन आँसुओं को त्याग करते हैं, उन आँसुओं को मृतात्मा परलोक में पीते हैं।’</poem>
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