प्रथम अध्याय
यद्यपि दुर्योधन यहाँ ‘द्रुपद पुत्र’ के स्थान पर ‘धृष्टद्युम्न’ भी कह सकता था, तथापि द्रोणाचार्य के साथ द्रुपद जो वैर रखता था, उस वैरभाव को याद दिलाने के लिए दुर्योधन यहाँ ‘द्रुपद पुत्रेण’ शब्द का प्रयोग करता है कि अब वैर निकालने का अच्छा मौका है।
‘पाण्डुपुत्राणाम् एतां व्यूढां महतीं चमूं पश्य’- द्रुपद पुत्र के द्वारा पांडवों की इस व्यूहाकार खडी हुई बड़ी भारी सेना को देखिए। तात्पर्य है कि जिन पांडवों पर आप स्नेह रखते हैं, उन्हीं पांडवों ने आपके प्रतिपक्ष में खास आपको मारने वाले द्रुपद पुत्र को सेनापति बनाकर व्यूह-रचना करने का अधिकार दिया है। अगर पांडव आपसे स्नेह रखते तो कम से कम आपको मारने वाले को तो अपनी सेना का मुख्य सेनापति नहीं बनाते, इतना अधिकार तो नहीं देते। परंतु सब कुछ जानते हुए भी उन्होंने उसी को सेनापति बनाया है।
यद्यपि कौरवों की अपेक्षा पांडवों की सेना संख्या में कम थी अर्थात कौरवों की सेना ग्यारह अक्षौहिणी[1] और पांडवों की सेना सात अक्षौहिणी थी, तथापि दुर्योधन पांडवों की सेना को बड़ी भारी बता रहा है। पांडवों की सेना को बड़ी भारी कहने में दो भाव मालूम देते हैं-
- पांडवों की सेना ऐसे ढंग से व्यूहाकार खड़ी हुई थी, जिससे दुर्योधन को थोड़ी सेना भी बहुत बड़ी दीख रही थी और
- पांडव सेना में सब के सब योद्धा एक मत के थे। इस एकता के कारण पांडवों की थोड़ी सेना भी बल में, उत्साह में बड़ी मालूम दे रही थी। ऐसी सेना को दिखाकर दुर्योधन द्रोणाचार्य से यह कहना चाहता है कि युद्ध करते समय आप इस सेना को सामान्य और छोटी न समझें। आप विशेष बल लगाकर सावधानी से युद्ध करें। पांडवों का सेनापति है तो आपका शिष्य द्रुपदपुत्र ही; अतः उस पर विजय करना आपके लिए कौन-सी बड़ी बात है।
‘एतां पश्य’ कहने का तात्पर्य है कि यह पांडव सेना युद्ध के लिए तैयार होकर सामने खड़ी है। अतः हम लोग इस सेना पर किस तरह से विजय कर सकते हैं- इस विषय में आपको जल्दी से जल्दी निर्णय लेना चाहिये।
सम्बन्ध- द्रोणाचार्य से पांडवों की सेना देखने के लिये प्रार्थना करके अब दुर्योधन उन्हें पांडव सेना के महारथियों को दिखाता है।
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।। 4 ।।
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंग्वः।। 5 ।।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।। 6 ।।
अर्थ- यहाँ[2] बड़े-बड़े शूरवीर हैं, जिनके बहुत बड़े-बड़े धनुष हैं तथा जो युद्ध में भीम और अर्जुन के समान हैं। उनमें युयुधान[3], राजा विराट और महारथी द्रुपद भी हैं। धृष्टकेतु और चेकितान तथा पराक्रमी काशिराज भी हैं। पुरुजित और कुंतिभोज- ये दोनों भाई तथा मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य भी हैं। पराक्रमी युधामन्यु और |पराक्रमी उत्तमौजा भी हैं। सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र भी हैं। ये सब-के-सब महारथी हैं।
व्याख्या- ‘अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि’- जिनसे बाण चलाए जाते हैं, फेंके जाते हैं, उनका नाम ‘इष्वास’ अर्थात धनुष है। ऐसे बड़े-बड़े इष्वास[4] जिनके पास हैं, वे सभी ‘महेश्वास’ हैं। तात्पर्य है कि बड़े धनुषों पर बाण चढ़ाने एवं प्रत्यञ्चा खींचने में बहुत बल लगता है। जोर से खींचकर छोड़ा गया बाण विशेष मार करता है।
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