श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
प्रथम अध्याय संबंध- पूर्वश्लोक में अपने शरीर के शोकजनित आठ चिह्नों का वर्णन करके अब अर्जुन भावी परिणाम के सूचक शकुनों की दृष्टि से युद्ध करने का अनौचित्य बताते हैं।
अर्थ- हे केशव! मैं लक्षणों- शकुनों को भी विपरीत देख रहा हूँ और युद्ध में स्वजनों को मारकर श्रेय[1] भी नहीं देख रहा हूँ। व्याख्या- ‘निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव’- हे केशव! मैं शकुनों को[2] भी विपरीत ही देख रहा हूँ। तात्पर्य है कि किसी भी कार्य के आरंभ में मन में जितना अधिक उत्साह[3] होता है, वह उत्साह उस कार्य को उतना ही सिद्ध करने वाला होता है। परंतु अगर कार्य के आरंभ में ही उत्साह भंग हो जाता है, मन में संकल्प-विकल्प ठीक नहीं होते, तो उस कार्य का परिणाम अच्छा नहीं होता। इसी भाव से अर्जुन कह रहे हैं कि अभी मेरे शरीर में अवयवों का शिथिल होना, कम्प होना, मुख का सूखना आदि जो लक्षण हो रहे हैं, ये व्यक्तिगत शकुन भी ठीक नहीं हो रहे हैं[4] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ लाभ
- ↑ जितने भी शकुन होते हैं, वे किसी अच्छी या बुरी घटना के होने में निमित्त नहीं होते अर्थात वे किसी घटना के निर्माता नहीं होते, प्रत्युत भावी घटना की सूचना देने वाले होते हैं। शकुन बताने वाले प्राणी भी वास्तव में शकुनों को बताते नहीं है; किंतु उनकी स्वाभाविक चेष्टा से शकुन सूचित होते हैं।
- ↑ हर्ष
- ↑ यद्यपि अर्जुन शरीर में होने वाले लक्षणों को भी शकुन मान रहे हैं, तथापि वास्तव में ये शकुन नहीं है। ये तो शोक के कारण इंद्रियाँ, शरीर मन, बुद्धि में होने वाले विकार हैं।
- ↑ यहाँ ‘पश्यामि’ क्रिया भूत और वर्तमान के शकुनों के विषय में और ‘अनुपश्यामि’ क्रिया भविष्य के परिणाम के विषय में आयी है।
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