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प्रथम अध्याय
दिव्यौ शंखौ प्रद्ध्मतुः- भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के हाथों में जो शंख थे, वे तेजोमय और अलौकिक थे। उन शंखों को उन्होंने बड़े जोर से बजाया।
यहाँ शंका हो सकती है कि कौरव पक्ष में मुख्य सेनापति पितामह भीष्म हैं, इसलिए उनका सबसे पहले शंख बजाना ठीक ही है; परंतु पांडव सेना में मुख्य सेनापति धृष्टद्युम्न के रहते हुए ही सारथि बने हुए भगवान श्रीकृष्ण ने सबसे पहले शंख क्यों बजाया? इसका समाधान है कि भगवान सारथि बने चाहें महारथी बनें, उनकी मुख्यता कभी मिट ही नहीं सकती। वे जिस किसी भी पद पर रहें, सदा सबसे बड़े ही बने रहते हैं। कारण कि वे अच्युत हैं, कभी च्युत होते ही नहीं। पांडव सेना में भगवान श्रीकृष्ण ही मुख्य थे और वे ही सबका संचालन करते थे। जब वे बाल्यावस्था में थे, उस समय भी नंद, उपनंद आदि उनकी बात मानते थे। तभी तो उन्होंने बालक श्रीकृष्ण के कहने से परंपरा से चली आयी इंद्र- पूजा को छोड़कर गोवर्धन की पूजा करनी शुरू कर दी। तात्पर्य है कि भगवान जिस किसी अवस्था में, जिस किसी स्थान पर और जहाँ कहीं भी रहते हैं, वहाँ वे मुख्य ही रहते हैं। इसीलिये भगवान ने पांडव सेना में सबसे पहले शंख बजाया। जो स्वयं छोटा होता है, वही ऊँचे स्थान पर नियुक्त होने से बड़ा माना जाता है। अतः जो ऊँचे स्थान के कारण अपने को बड़ा मानता है, वह स्वयं वास्तव में छोटा ही होता है। परंतु जो स्वयं बड़ा होता है, वह जहाँ भी रहता है, उसके कारण वह स्थान भी बड़ा माना जाता है। जैसे भगवान यहाँ सारथि बने हैं, तो उनके कारण वह सारथि का स्थान[1] भी ऊँचा हो गया।
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