श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
दोषदृष्टि रहने से मनुष्य महान लाभ से वंचित हो जाता है और अपना पतन कर लेता है। अतः दोषदृष्टि करना बड़ा भारी दोष है। यह दोष श्रद्धालुओं में भी रहता है। इसलिए साधक को सावधान होकर इस भयंकर दोष से बचते रहना चाहिए। भगवान ने भी[1] जहाँ अपना मत बताया, वहाँ ‘श्रद्धावन्तः अनसूयन्तः’ पदों से यह बात कही की श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित मनुष्य कर्मों से छूट जाता है। ऐसे ही गीता के माहात्म्य[2] में भी ‘श्रद्धावाननसूयश्च’ पदों से यह बताया कि श्रद्धावान और दोषदृष्टि से रहित मनुष्य केवल गीता को सुनने मात्र से वैकुण्ठ आदि लोकों को चला जाता है। इस गोपनीय रहस्य को दूसरों से मत कहना- यह कहने का तात्पर्य दूसरों को इस गोपनीय तत्त्व से वंचित रखना नहीं है, प्रत्युत जिसकी भगवान और उनके वचनों पर श्रद्धा भक्ति नहीं है, वह भगवान को स्वार्थी समझकर[3], भगवान पर दोषारोपण करके महान पतन की तरफ न चला जाए, इसलिए उसको कहने का निषेध किया है। संबंध- गीता जी का यह प्रभाव है कि जो इसका प्रचार करेगा, उससे बढ़कर मेरा प्यारा कोई नहीं होगा- यह बात भगवान आगे के दो श्लोकों में बताते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 3:31 में
- ↑ गीता 18:71
- ↑ जैसे साधारण मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए ही किसी को स्वीकार करते हैं
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