श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
‘नाभक्ताय कदाचन’- जो भक्ति से रहित है, जिसका भगवान पर भरोसा, श्रद्धा विश्वास नहीं है, उसको भी यह बात मत कहना; क्योंकि श्रद्धा विश्वास और भक्ति न होने से उसकी यह विपरीत धारणा हो सकती है कि ‘भगवान तो आत्मश्लाघी हैं, स्वार्थी हैं और दूसरों को वश में करना चाहते हैं। जो दूसरों को अपनी आज्ञा में चलाना चाहता है, वह दूसरों को क्या निहाल करेगा? उसके शरण होने से क्या लाभ?’ आदि-आदि। इस प्रकार दुर्भाव करके वह अपना पतन कर लेगा। इसलिए ऐसे अभक्त को कभी मत कहना। ‘न चाशुश्रषवे वाच्यम्’- जो इस रहस्य को सुनना नहीं चाहता, इसकी उपेक्षा करता है, उसको भी कभी मत सुनाना; क्योंकि बिना रुचि के, जबर्दस्ती सुनाने से वह इस बात का तिरस्कार करेगा, उसको सुनना अच्छा नहीं लगेगा, उसका मन इस बात को फेंकेगा। यह भी उसके द्वारा एक अपराध होगा। अपराध करने वाला का भला नहीं होता। अतः जो सुनना नहीं चाहता, उसको मत सुनाना। |
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