श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत । अर्थ- हे भारतवंशोद्धव अर्जुन! तू सर्वभाव से उस ईश्वर की शरण में चला जा। उसकी कृपा से तू परमशान्ति (संसार से सर्वथा उपरति) को और अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जायगा। व्याख्या- [मनुष्य में प्रायः यह एक कमज़ोरी रहती है कि जब उसके सामने संत महापुरुष विद्यमान रहते हैं, तब उसका उन पर श्रद्धा-विश्वास एवं महत्त्वबुद्धि नहीं होती;[1] परंतु जब वे चले जाते हैं, तब पीछे वह रोता है, पश्चाताप करता है। ऐसे ही भगवान अर्जुन के रथ के घोड़े हांकते हैं और उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। वे ही भगवान जब अर्जुन से कहते हैं कि शरणागत भक्त मेरी कृपा से शाश्वत पद को प्राप्त हो जाता है; और तू भी मेरे में चित्त वाला होकर मेरी कृपा से संपूर्ण विघ्नों को तर जाएगा, तब अर्जुन कुछ बोले ही नहीं। इससे यह संभावना भी हो सकती है कि भगवान के वचनों पर अर्जुन को पूरा विश्वास न हुआ हो। इसी दृष्टि से भगवान को यहाँ अर्जुन के लिए अंतर्यामी ईश्वर की शरण में जाने की बात कहनी पड़ी।] ‘तमेव शरणं गच्छ’- भगवान कहते हैं कि जो सर्वव्यापक ईश्वर सबके हृदय में विराजमान है और सबका संचालक है, तू उसी की शरण में चला जा। तात्पर्य है कि सांसारिक उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति, घटना परिस्थिति आदि किसी का किञ्चिन्मात्र भी आश्रय न लेकर केवल अविनाशी परमात्मा का ही आश्रय ले ले। पूर्वश्लोक में यह कहा गया है कि मनुष्य जब तक शरीर रूपी यंत्र के साथ मैं-मेरापन का संबंध रखता है तब तक ईश्वर अपनी माया से उसको घुमाता रहता है। अब यहाँ ‘एव’ पद से उसका निषेध करते हुए भगवान अर्जुन से कहते हैं कि शरीररूपी यंत्र के साथ किञ्चिन्मात्र भी मैं-मेरापन का संबंध न रखकर तू केवल उस ईश्वर की शरण में चला जा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ‘अतिपरिचयादवज्ञा’ अर्थात् जहाँ किसी से अति परिचय होता है, वहाँ उसकी अवज्ञा होती है।
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