श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
यदि कोई ब्राह्मण को श्राद्ध का निमंत्रण देना चाहे तो वह श्राद्ध के पहले दिन दे, जिससे ब्राह्मण उसके पितरों का अपने में आवाहन करके रात्रि में ब्रह्मचर्य और संयमपूर्वक रह सके। दूसरे दिन वह यजमान के पितरों का पिंडदान, तर्पण ठीक विधि-विधान से करवाये। उसके बाद वहाँ भोजन करे। निमंत्रण भी एक ही यजमान का स्वीकार करे और भोजन भी एक ही घर का करे। श्राद्ध का अन्न खाने के बाद गायत्री-जप आदि करके शुद्ध होना चाहिए। दान लेना, श्राद्ध का भोजन करना ब्राह्मण के लिए ऊँचा दर्जा नहीं है। ब्राह्मण का ऊँचा दर्जा त्याग में है। वे केवल यजमान के पितरों का कल्याण करने की भावना से ही श्राद्ध का भोजन और दक्षिणा स्वीकार करते हैं, स्वार्थ की भावना से नहीं; अतः यह भी उनका त्याग ही है। ब्राह्मणों ने अपनी जीविका के लिए ऋत, अमृत, मृत, सत्यानृत और प्रमृत- ये पाँच वृत्तियाँ बतायी हैं।[1]- 1. ऋत-वृत्ति सर्वोच्च वृत्ति मानी गयी है। इसको शिलोच्छ या कपोत-वृत्ति भी कहते हैं। खेती करने वाले खेतों में से धान काटकर ले जाएं, उसके बाद वहाँ जो अन्न (ऊमी, सिट्टा आदि) पृथ्वी पर गिरा पड़ा हो, वह भूदेवों (ब्राह्मणों) का होता है; अतः उनको चुनकर अपना निर्वाह करना ‘शिलोञ्छवृत्ति’ है अथवा धान्यमंडी में जहाँ धान्य तौला जाता है, वहाँ पृथ्वी पर गिरे हुए दाने भूदेवों के होते हैं; अतः उनको चुनकर जीवन निर्वाह करना ‘कपोतवृत्ति’ है। 2. बिना याचना किए और बिना इशारा किए कोई यजमान आकर देता है तो निर्वाहमात्र की वस्तु लेना ‘अमृत-वृत्ति’ है। इसको ‘अयाचितवृत्ति’ भी कहते हैं। 3. सुबह भिक्षा के लिए गाँव में जाना और लोगों को वार, तिथि, मुहूर्त आदि बताकर (इस रूप में काम करके) भिक्षा में जो कुछ मिल जाए, उसी से अपना जीवन-निर्वाह करना ‘मृत-वृत्ति’ है। 4. व्यापार करके जीवन-निर्वाह करना ‘सत्यानृत-वृत्ति’ है। 5. उपर्युक्त चारों वृत्तियों से जीवन-निर्वाह न हो तो खेती करे, पर वह भी कठोर विधि-विधान से करे; जैसे- एक बैल से हल न चलाए, धूपके समय हल न चलाए आदि, यह ‘प्रमृत-वृत्ति’ है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऋतामृताभ्यां जीवेत्तु मृतेन प्रमृतेन वा। सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत्या कदाचन ।। (मनुस्मृति 4।4) ‘ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत और सत्यानृत- इनमें से किसी भी वृत्ति से जीवन निर्वाह करें; परंतु श्ववृत्ति अर्थात् सेवानिवृत्ति से कभी भी जीवन-निर्वाह न करे।’
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