श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
वैश्य को मध्यभाग कहने का तात्पर्य है कि जैसे पेट में अन्न, जल, औषध आदि डाले जाते हैं तो उनसे शरीर के संपूर्ण अवयवों को खुराक मिलती है और सभी अवयव पुष्ट होते हैं, ऐसे ही वस्तुओं का संग्रह करना, उनका यातायात करना, जहाँ जिस चीज की कमी हो वहाँ पहुँचाना, प्रजा को किसी चीज का अभाव न होने देना वैश्य का काम है। पेट में अन्न-जल का संग्रह सब शरीर के लिए होता है और साथ में पेट को भी पुष्ट मिल जाती है; क्योंकि मनुष्य केवल पेट के लिए पेट नहीं भरता। ऐसे ही वैश्य केवल दूसरों के लिए ही संग्रह करे, केवल अपने लिए नहीं। वह ब्राह्मण आदि को दान देता है, क्षत्रियों को टैक्स देता है, अपना पालन करता है और शूद्रों को मेहनताना देता है। इस प्रकार वह सबका पालन करता है। यदि वह संग्रह नहीं करेगा, कृषि, गौरक्ष्य और वाणिज्य नहीं करेगा तो क्या देगा? शूद्र को चरण बताने का तात्पर्य है कि जैसे चरण सारे शरीर को उठाये फिरते हैं और पूरे शरीर की सेवा चरणों से ही होती है, ऐसे ही सेवा के आधार पर ही चारों वर्ण चलते हैं। शूद्र अपन सेवा-कर्म के द्वारा सबके आवश्यक कार्यों की पूर्ति करता है। उपर्युक्त विवेचन में एक ध्यान देने की बात है कि गीता में चारों वर्णों के न स्वाभाविक कर्मों का वर्णन है, जो कर्म स्वतः होते हैं अर्थात उनको करने में अधिक परिश्रम नहीं पड़ता। चारों वर्णों के लिए और भी दूसरे कर्मों का विधान है, उनको स्मृति-ग्रंथों में देखना चाहिए और उनके अनुसार अपने आचरण बनाने चाहिए।[1]
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज