श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
आगे छियालीसवें श्लोक में भगवान ने बड़ी श्रेष्ठ बात बतायी है कि जिससे संपूर्ण संसार पैदा हुआ है और जिससे संपूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का ही लक्ष्य रखकर, उसके प्रीत्यर्थ ही पूजन रूप से अपने-अपने वर्ण के अनुसार कर्म किए जाएँ। इसमें मनुष्यमात्र का अधिकार है। देवता, असुर, पशु पक्षी आदि का स्वतः अधिकार नहीं है; परंतु उनके लिए भी परमात्मा की तरफ से निषेध नहीं है। कारण कि सभी परमात्मा का अंश होने से परमात्मा की प्राप्ति के सभी अधिकारी हैं। प्राणिमात्र का भगवान पर पूरा अधिकार है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि आपस के व्यवहार में अर्थात रोटी बेटी और शरीर आदि के साथ बर्ताव करने में तो ‘जन्म’ की प्रधानता है और परमात्मा की प्राप्ति में भाव, विवेक और ‘कर्म’ की प्रधानता है। इसी आशय को लेकर भागवतकार ने कहा है कि जिस मनुष्य के वर्ण को बताने वाला जो लक्षण कहा गया है, वह यदि दूसरे वर्ण वाले में भी मिले तो उसे भी उसी वर्ण का समझ लेना चाहिए।[2] अभिप्राय यह है कि ब्राह्मण के शम-दम आदि जितने लक्षण हैं, वे लक्षण या गुण स्वाभाविक ही किसी में हों तो जन्ममात्र से नीचा होने पर भी उसको नीचा नहीं मानना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आचारहीनं न पुनन्ति वेदा यदप्यधीताः सह षङ्भिरंगैः। छन्दांस्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव जातपक्षाः ।। (वसिष्ठस्मृति) ’शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छन्द, व्याकरण और ज्योतिष- इन छहों अंगों सहित अध्ययन किए हुए वेद भी आचारहीन पुरुष को पवित्र नहीं करते। पंख पैदा होने पर पक्षी जैसे अपने घोंसले को छोड़ देता है, ऐसे ही मृत्यु समय में आचारहीन पुरुष को वेद छोड़ देते हैं।’
- ↑ यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यंजकम्। यदन्यत्रापि दृश्येत तत् तेनैव विनिर्दिशेत् ।। (श्रीमद्भा. 7।11।35)
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