श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु य: ।
व्याख्या- ‘तत्रैवं सति......पश्यति दुर्मतिः’- जितने भी कर्म होते हैं, वे सब अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव- इन पाँच हेतुओं से ही होते हैं, अपने स्वरूप से नहीं। परंतु ऐसा होने पर भी जो पुरुष अपने स्वरूप को कर्ता मान लेता है, उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है- ‘अकृतबुद्धित्वात्’ अर्थात उसने विवेक-विचार को महत्त्व नहीं दिया है। जड और चेतन का, प्रकृति और पुरुष का जो वास्तविक विवेक है, अलगाव है, उसकी तरफ उसने ध्यान नहीं दिया है। इसलिए उसकी बुद्धि में दोष आ गया है। उस दोष के कारण वह अपने को कर्ता मान लेता है। यहाँ आये ‘अकृतबुद्धित्वात्’ और ‘दुर्मतिः’ पदों का समान अर्थ दीखते हुए भी इनमें थोड़ा फर्क है। ‘अकृतबुद्धित्वात्’ पद हेतु के रूप में आया है और ‘दुर्मतिः’ पद कर्ता के विशेषण के रूप में आया है अर्थात कर्ता के दुर्मति होने में अकृतबुद्धि ही हेतु है। तात्पर्य है कि बुद्धि को शुद्ध न करने से अर्थात बुद्धि में विवेक जाग्रत न करने से ही वह दुर्मति है। अगर वह विवेक को जाग्रत करता, तो वह दुर्मति नहीं रहता। केवल (शुद्ध) आत्मा कुछ नहीं करता- ‘न करोति न लिप्यते’[1]; परंतु तादात्म्य के कारण ‘मैं नहीं करता हूँ’- ऐसा बोध नहीं होता। बोध न होने में ‘अकृतबुद्धि’ ही कारण है अर्थात जिसने बुद्धि को शुद्ध नहीं किया है, वह दुर्मति ही अपने को कर्ता मान लेता है; जबकि शुद्ध आत्मा में कर्तृत्व नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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