श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
इन शरीर, वाणी आदि को अपना समझकर अपने लिए कर्म करने से ही इनमें अशुद्धि आती है, इसलिए इनको शुद्ध किए बिना केवल विचार से बुद्धि के द्वारा सांख्यसिद्धांत की बातें तो समझ में आ सकती हैं; परंतु ‘कर्मों के साथ मेरा किञ्चिन्मात्र भी संबंध नहीं है’- ऐसा स्पष्ट बोध नहीं हो सकता। ऐसी हालत में साधक शरीर आदि को अपना न समझे और अपने लिए कोई कर्म न करे तो वे शरीरादि बहुत जल्दी शुद्ध हो जाएँगे; अतः चाहे कर्मयोग की दृष्टि से इनको शुद्ध करके इनसे संबंध तोड़ ले, चाहे सांख्य-योग की दृष्टि से प्रबल विवेक के द्वारा इनसे संबंध तोड़ ले। दोनों ही साधनों से प्रकृति और प्रकृति के कार्य के साथ अपने माने हुए संबंध का विच्छेद हो जाता है और वास्तविक तत्त्व का अनुभव हो जाता है। जिस समष्टि-शक्ति से संसारमात्र की क्रियाएँ होती हैं, उसी समष्टि-शक्ति से व्यष्टि शरीर की क्रियाएँ भी स्वाभाविक होती है। विवेक को महत्त्व न देने के कारण ‘स्वयं’ उन क्रियाओं में से खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना-जगना आदि जिन क्रियाओं का कर्ता अपने को मान लेता है, वहाँ कर्म संग्रह होता है अर्थात वे क्रियाएँ बांधने वाली हो जाती हैं। परंतु जहाँ स्वयं अपने को कर्ता नहीं मानता, वहाँ कर्मसंग्रह नहीं होता। वहाँ तो केवल क्रियामात्र होती है। इसलिए वे क्रियाएँ फलोत्पादक अर्थात बाँधने वाली नहीं होतीं। जैसे, बचपन से जवान होना, श्वास का आना-जाना, भोजन का पाचन होना तथा रस आदि बन जाना आदि क्रियाएँ बिना कर्तृत्वाभिमान के प्रकृति के द्वारा स्वतः स्वाभाविक होती हैं और उनका कोई कर्म संग्रह अर्थात पाप-पुण्य नहीं होता। ऐसे ही कर्तृत्वाभिमान न रहने पर ‘सभी क्रियाएँ प्रकृति के द्वारा ही होती है’- ऐसा स्पष्ट अनुभव हो जाता है। संबंध- भगवान ने सांख्यसिद्धांत बताने के लिए जो उपक्रम किया है, उनमें कर्मों के होने में पाँच हेतु बताने का क्या आशय है- इसका वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं। |
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