श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
जैसे धन और भोग का प्रारब्ध अलग-अलग होता है अर्थात किसी का धन का प्रारब्ध होता है और किस का भोग का प्रारब्ध होता है, ऐसे ही धर्म और मोक्ष का पुरुषार्थ भी अलग-अलग होता है अर्थात कोई धर्म के लिए पुरुषार्थ करता है और कोई मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करता है। धर्म के अनुष्ठान में शरीर, धन आदि वस्तुओं की मुख्यता रहती है और मोक्ष की प्राप्ति में भाव तथा विचार की मुख्यता रहती है। एक ‘करना’ होता है और एक ‘होना’ होता है। दोनों विभाग अलग-अलग हैं। करने की चीज है- कर्तव्य और होने की चीज है- फल। मनुष्य का कर्म करने में अधिकार है, फल में नहीं- ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’।[1] तात्पर्य यह है कि होने की पूर्ति प्रारब्ध के अनुसार अवश्य होती है, उसके लिए ‘यह होना चाहिए और यह नहीं होना चाहिए’- ऐसी इच्छा नहीं करनी चाहिए और करने में शास्त्र तथा लोक-मर्यादा के अनुसार कर्तव्य-कर्म करना चाहिए। ‘करना’ पुरुषार्थ के अधीन है और ‘होना’ प्रारब्ध के अधीन है। इसलिए मनुष्य करने में स्वाधीन है और होने में पराधीन है। मनुष्य की उन्नति में खास बात है- ‘करने में सावधान रहे और होने में प्रसन्न रहे।’ क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध- तीनों कर्मों से मुक्त होने का क्या उपाय है? प्रकृति और पुरुष- ये दो हैं। प्रकृति सदा क्रियाशील है, पर पुरुष में कभी परिवर्तनरूप क्रिया नहीं होती। प्रकृति से अपना संबंध मानने वाला ‘प्रकृतिस्थ’ पुरुष ही कर्ता-भोक्ता बनता है। जब वह प्रकृति से संबंध-विच्छेद कर लेता है अर्थात अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है, तब उस पर कोई भी कर्म लागू नहीं होता। प्रारब्ध-संबंधी अन्य बातें इस प्रकार हैं- 1. बोध हो जाने पर भी ज्ञानी का प्रारब्ध रहता है- यह कथन केवल अज्ञानियों को समझाने के लिए है। कारण कि अनुकूल या प्रतिकूल घटना का घट जाना ही प्रारब्ध है। प्राणी को सुखी या दुःखी करना प्रारब्ध का काम नहीं है, प्रत्युत अज्ञान का काम है। अज्ञान मिटने पर मनुष्य सुखी-दुःखी नहीं होता। उसे केवल अनुकूलता-प्रतिकूलता का ज्ञान होता है। ज्ञान होना दोषी नहीं है, प्रत्युत सुख-दुःख रूप विकार होना दोषी है। इसलिए वास्तव में ज्ञानी का प्रारब्ध नहीं होता। 2. जैसा प्रारब्ध होता है, वैसी बुद्धि बन जाती है। जैसे, एक ही बाजार में एक व्यापारी माल की बिक्री कर देता है और एक व्यापारी माल खरीद लेता है। बाद में जब बाजार-भाव तेज हो जाता है, तब बिक्री करने वाले व्यापारी को नुकसान होता है तथा खरीदने वाले व्यापारी को नफा होता है; और जब बाजार-भाव मंदा हो जाता है, तब बिक्री करने वाले व्यापारी को नफा होता है तथा खरीदने वाले व्यापारी को नुकसान होता है। अतः खरीदने और बेचने की बुद्धि प्रारब्ध से बनती है अर्थात नफा या नुकसान का जैसा प्रारब्ध होता है, उसी के अनुसार पहले बुद्धि बन जाती है, जिससे प्रारब्ध के अनुसार फल भुगताया जा सके। परंतु खरीदने और बेचने की क्रिया न्याययुक्त की जाए अथवा अन्याययुक्त की जाए- इसमें मनुष्य स्वतंत्र है; क्योंकि यह क्रियमाण (नया कर्म) है, प्रारब्ध नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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