श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
अगर धन का प्रारब्ध है तो कोई गोद ले लेगा अथवा मरता हुआ कोई व्यक्ति उसके नाम से वसीयतनामा लिख देगा अथवा मकान बनाते समय नींव खोदते ही जमीन में गड़ा हुआ धन मिल जाएगा, आदि-आदि। इस प्रकार प्रारब्ध के अनुसार जो धन मिलने वाला है, वह किसी न किसी कारण से मिलेगा ही।[1] परंतु मनुष्य प्रारब्ध पर तो विश्वास करता नहीं, कम से कम अपने पुरुषार्थ पर भी विश्वास नहीं करता कि हम मेहनत से कमाकर खा लेंगे। इसी कारण उसकी चोरी आदि दुष्कर्मों में प्रवृत्ति हो जाती है, जिससे हृदय में जलन रहती है, दूसरों से छिपाव करना पड़ता है, पकड़े जाने पर दंड पाना पड़ता है, आदि-आदि। अगर मनुष्य विश्वास और संतोष रखे तो हृदय में महान शांति, आनंद, प्रसन्नता रहती है तथा आने वाला धन भी आ जाता है और जितना जीने का प्रारब्ध है, उतनी जीवन निर्वाह की सामग्री भी किसी न किसी तरह मिलती ही रहती है। जैसे व्यापार में घाटा लगना, घर में किसी की मृत्यु होना, बिना कारण अपयश और अपमान होना आदि प्रतिकूल परिस्थिति को कोई भी नहीं चाहता, पर फिर भी वह आती ही है, ऐसे ही अनुकूल परिस्थिति भी आती ही है, उसको कोई रोक नहीं सकता। भागवत में आया है- सुखमैन्द्रियकं राजन् स्वर्गे नरक एव च । ‘राजन! प्राणियों को जैसे इच्छा के बिना प्रारब्धानुसार दुःख प्राप्त होते हैं, ऐसे ही इंद्रियजन्य सुख स्वर्ग में और नरक में भी प्राप्त होते हैं। अतः बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि वह उन सुखों की इच्छा न करे।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यो दैवोऽपि तं लघंयितुं न शक्तः। तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम् (पंचतंत्र, मित्रसम्प्राप्ति 112) ‘प्राप्त होने वाला धन मनुष्य को मिलता ही है, दैव भी उसका उल्लंघन नहीं कर सकता। इसलिए तो मैं शोक करता हूँ और न मुझे विस्मय ही होता है; क्योंकि जो हमारा है, वह दूसरों का नहीं हो सकता।’
- ↑ श्रीमद्भा.11।8।1
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज