श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मण: फलम् ।
व्याख्या- ‘अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्’- कर्म का फल तीन तरह का होता है- इष्ट, अनिष्ट और मिश्र। जिस परिस्थिति को मनुष्य चाहता है, वह ‘इष्ट’ कर्मफल है, जिस परिस्थिति को मनुष्य नहीं चाहता, वह ‘अनिष्ट’ कर्मफल है और जिसमें कुछ भाग इष्ट का तथा कुछ भाग अनिष्ट का है, वह ‘मिश्र’ कर्मफल है। वास्तव में देखा जाए तो संसार में प्रायः मिश्रित ही फल होता है; जैसे- धन होने से अनुकूल (इष्ट) और प्रतिकूल (अनिष्ट)- दोनों ही परिस्थितियाँ आती हैं; धन से निर्वाह होता है- अनुकूलता है और टैक्स लगता है, धन नष्ट हो जाता है, छिन जाता है- यह प्रतिकूलता है। तात्पर्य है कि इष्ट में भी आंशिक अनिष्ट और अनिष्ट में भी आंशिक इष्ट ही है। कारण कि संपूर्ण संसार त्रिगुणात्मक है[1]; यह जन्म भी दुःखालय [2] और सुखरहित[3] है। अतः चाहे इष्ट (अनुकूल) परिस्थिति हो, चाहे अनिष्ट (प्रतिकूल) परिस्थिति हो, वह सर्वथा अनुकूल या प्रतिकूल होती ही नहीं। यहाँ इष्ट और अनिष्ट कहने का मतलब यह है कि इष्ट में अनुकूलता की और अनिष्ट में प्रतिकूलता की प्रधानता होती है। वास्तव में कर्मों का फल मिश्रित ही होता है; क्योंकि कोई भी कर्म सर्वथा निर्दोष नहीं होता।[4]। ‘भवत्यत्यागिनां प्रेत्य’- उपर्युक्त सभी फल अत्यागियों को अर्थात फल की इच्छा रखकर कर्म करने वालों को ही मिलते हैं, संन्यासियों को नहीं। कारण कि जितने भी कर्म होते हैं, वे सब प्रकृति के द्वारा अर्थात प्रकृति के कार्य शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि के द्वारा ही होते हैं तथा फलरूप परिस्थिति भी प्रकृति के द्वारा ही बनती है। इसलिए कर्मों का और उनके फलों का संबंध केवल प्रकृति के साथ है, ‘स्वयं (चेतन स्वरूप) के साथ नहीं। परंतु जब ‘स्वयं’ उनसे संबंध तोड़ लेता है, तो फिर वह भोगी नहीं बनता, प्रत्युत त्यागी हो जाता है।’ अत्यागी का मतलब है- पीछे के दो (दसवें-ग्यारहवें) श्लोकों में जिन त्यागियों की बात आयी है, उनके समान जो त्यागी नहीं है अर्थात जिन्होंने कर्मफल का त्याग नहीं किया है, ऐसे अत्यागी मनुष्यों के सामने इष्ट, अनिष्ट और मिश्र- तीनों कर्मफल अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति के रूप में आते रहते हैं, जिनसे वे सुखी-दुःखी होते रहते हैं। उनसे सुखी-दुःखी होना ही वास्तव में बंधन है। वास्तव में अनुकूलता से सुखी होना ही प्रतिकूलता में दुःखी होने के कारण है; क्योंकि परिस्थितिजन्य सुख भोगने वाला कभी दुःख से बच ही नहीं सकता। जब तक वह सुख भोगता रहेगा, तब तक वह प्रतिकूल परिस्थितियों में दुःखी होता ही रहेगा। चिन्ता, शोक, भय, उद्वेग आदि उसको कभी छोड़ नहीं सकते और वह भी इनसे कभी छूट नहीं सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज