श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
निर्विकार का विकारी कर्मफल के साथ संबंध कभी था नहीं, है नहीं, हो सकता नहीं और होने की संभावना भी नहीं है। केवल अविवेक के कारण संबंध माना हुआ था। उस अविवेक के मिटने से मनुष्य की अभिधा अर्थात उसका नाम ‘त्यागी’ हो जाता है- ‘स त्यागीत्यभिधीयते।’
माने हुए संबंध के विषय में दृष्टान्त रूप से एक बात कही जाती है। एक व्यक्ति घर-परिवार को छोड़कर सच्चे हृदय से साधु-संन्यासी हो जाता है तो उसके बाद घर वालों की कितनी ही उन्नति अथवा अवनति हो जाए अथवा सब के सब मर जाएँ, उनका नामोनिशान भी न रहे, तो भी उस पर कोई असर नहीं पड़ता। इसमें विचार करें कि उस व्यक्ति का परिवार के साथ जो संबंध था, वह दोनों तरफ से माना हुआ था अर्थात वह परिवार को अपना मानता था और परिवार उसको अपना मानता था।
परंतु पुरुष और प्रकृति का संबंध केवल पुरुष की तरफ से माना हुआ है, प्रकृति की तरफ से माना हुआ नहीं! जब दोनों तरफ से माना हुआ (व्यक्ति और परिवार का) संबंध भी एक तरफ से छोड़ने पर छूट जाता है, तब केवल एक तरफ से माना हुआ (पुरुष और प्रकृति का) संबंध छोड़ने पर छूट जाए, इसमें कहना ही क्या है!
संबंध- पूर्वश्लोक में कहा गया कि कर्मफल का त्याग करने वाला ही वास्तव में त्यागी है। अगर मनुष्य कर्मफल का त्याग न करे तो क्या होता है- इसे आगे के श्लोक में बताते हैं।
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