श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
‘ब्रह्मचर्यम्’- ये आठ क्रियाएँ ब्रह्मचर्य को भंग करने वाली हैं- (1) पहले कभी स्त्रीसंग किया है, उसको याद करना, (2) स्त्रियों से रागपूर्वक बातें करना, (3) स्त्रियों के साथ हँसी-दिल्लगी करना, (4) स्त्रियों की तरफ रागपूर्वक देखना, (5) स्त्रियों के साथ एकान्त में बातें करना, (6) मन में स्त्रीसंग का संकल्प करना, (7) स्त्रीसंग का पक्का विचार करना और (8) साक्षात् स्त्रीसंग करना। ये आठ प्रकार के मैथुन विद्वानों ने बतायें हैं।[1] इनमें से कोई भी क्रिया कभी न हो, उसका नाम ‘ब्रह्मचर्य’ है। ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी- इन तीनों का तो बिल्कुल ही वीर्यपात नहीं होना चाहिए और न ऐसा संकल्प ही होना चाहिए। गृहस्थ केवल संतानार्थ शास्त्रविधि से अनुसार ऋतुकाल में स्त्रीसंग करता है, तो वह गृहस्थाश्रम में रहता हुआ भी ब्रह्मचारी माना जाता है। विधवाओं के विषय में भी ऐसी ही बात आती है कि जो स्त्री अपने पति के रहते पतिव्रत-धर्म का पालन करती रही है और पति की मृत्यु के बाद ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करती है, उस विधवा की वही गति होती है, जो आबाल ब्रह्मचारी की होती है। वास्तव में तो ‘ब्रह्मचारिव्रते स्थितः’[2]- ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित रहना ही ब्रह्मचर्य है। परंतु इसमें भी यदि स्वप्नदोष हो जाए अथवा प्रमेह आदि शरीर की खराबी से वीर्यपात हो जाए, तो उसे ब्रह्मचर्यभंग नहीं माना गया है। भीतर के भावों में गड़बड़ी आने से जो वीर्यपात आदि होते हैं, वही ब्रह्मचर्य भंग माना गया है। कारण कि ब्रह्मचर्य का भावों के साथ संबंध है। इसलिए ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले को चाहिए कि अपने भाव शुद्ध रखने के लिए वह अपने मन को पर स्त्री की तरफ कभी जाने ही न दे। सावधानी रखने पर कभी मन चला भी जाए, तो भीतर में दृढ़ विचार रखे कि यह मेरा काम नहीं है, मैं ऐसा काम करूँगा ही नहीं; क्योंकि मेरा ब्रह्मचर्य-पालन करने का पक्का विचार है; मैं ऐसा काम कैसे कर सकता हूँ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणम्। संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिष्पत्तिरेव च ।। एतन्मैथुनमष्टांग प्रवदन्ति मनीषिणः। विपरीतं ब्रह्मचर्यमनुष्ठेयं मुमुक्षुभिः ।।
- ↑ गीता 6:14
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