श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
‘शौचम्’- जल, मृत्तिका आदि से शरीर को पवित्र बनाने का नाम ‘शौच’ है। शारीरिक शुद्धि से अंतःकरण की शुद्धि होती है। शौच से अपने शरीर में घृणा होगी कि हम इस शरीर को रात-दिन इतना साफ करते हैं, फिर भी इससे मल, मूत्र, पसीना, नाक का कफ, आँख और कान की मैल, लार, थूक आदि निकलते ही रहते हैं। यह शरीर हड्डी, मांस, मज्जा आदि घृणित (अपवित्र) चीजों का बना हुआ है। इस हड्डी-मांस के थैले में तोलाभर भी कोई शुद्धि, पवित्र, निर्मल और सुगंधयुक्त वस्तु नहीं है। यह केवल गंदगी का पात्र है। इसमें कोरी मलिनता ही मलिनता भरी पड़ी है। यह केवल मल-मूत्र पैदा करने की एक फैक्टरी है, मशीन है। इस प्रकार शरीर की अशुद्धि, मलिनता का ज्ञान होने से मनुष्य शरीर से ऊँचा उठ जाता है। शरीर से ऊँचा उठने पर उसको वर्ण, आश्रम, अवस्था आदि को लेकर अपने में बड़प्पन का अभिमान नहीं होता। इन्हीं बातों के लिए शौच रखा जाता है। आजकल प्रायः लोग कहते हैं कि जो शौचाचार रखते हैं, वे तो दूसरों का अपमान करते हैं, दूसरों से घृणा करते हैं। उनका ऐसा कहना बिलकुल गलत है; क्योंकि शौच का फल यह नहीं बताया गया कि तुम दूसरों का तिरस्कार करो, प्रत्युत यह बताया गया कि इससे दूसरों के साथ संसर्ग नहीं होगा- ‘परैरसंसर्गः।’ तात्पर्य है कि शरीर मात्र से ग्लानि हो जाएगी कि ये सब पुतले ऐसे ही अशुद्ध हैं। जैसे, मिट्टी के ढेले को जल से धोते चले जाएंगे, तो अंत में वह सब (गलकर) समाप्त हो जाएगा, पर उसमें मिट्टी के सिवाय कोई बढ़िया चीज नहीं मिलेगी; ऐसे ही शरीर को कितना ही शुद्ध करते रहें, पर वह कभी शुद्ध होगा नहीं; क्योंकि इसके मूल में ही अशुद्धि है-
‘विद्वान् लोग शरीर को स्थान (माता के उदर में स्थित), बीज (माता-पिता के रजोवीर्य से उद्भूत), उपष्टम्भ (खाये-पीए हुए आहार के रस से परिपुष्ट), निःस्यन्द (मल, मूत्र, थूक, लार, स्वेद आदि स्राव से युक्त), निधन (मरणधर्मा) और आधेय शौच (जल-मृत्तिका आदि से प्रक्षालित करने योग्य) होने के कारण अपवित्र मानते हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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