श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
व्याख्या- ‘यातयामम्’- पकने के लिए जिनको पूरा समय प्राप्त नहीं हुआ, ऐसे अधपके या उचित समय से ज्यादा पके हुए अथवा जिनका समय बीत गया है, ऐसे बिना ऋतु के पैदा किए हुए एवं ऋतु चली जाने पर फ्रिज आदि की सहायता से रखे हुए साग, फल आदि भोजन के पदार्थ। ‘गतरसम्’- धूप आदि से जिनका स्वाभाविक रस सूख गया है अथवा मशीन आदि से जिनका सार खींच लिया गया है, ऐसे दूध फल आदि। ‘पूति’- सड़न से पैदा की गयी मदिरा[1] और स्वाभाविक दुर्गन्ध वाले प्याज, लहसुन आदि। ‘पर्युषितम्’- जल और नमक मिलाकर बनाए हुए साग, रोटी आदि पदार्थ रात बीतने पर बासी कहलाते हैं। परंतु केवल शुद्ध दूध, घी, चीनी आदि से बने हुए अथवा अग्नि पर पकाए हुए पेड़ा, जलेबी, लड्डू आदि जो पदार्थ हैं, उनमें जब तक विकृति नहीं आती, तब तक वे बासी नहीं माने जाते। ज्यादा समय रहने पर उनमें विकृति (दुर्गन्ध आदि) पैदा होने से वे भी बासी कहे जाएँगे। ‘उच्छिष्टम्’- भुक्तावशेष अर्थात भोजन के बाद पात्र में बचा हुआ अथवा जूठा हाथ लगा हुआ और जिसको गाय, बिल्ली, कुत्ता, कौआ आदि पशु-पक्षी देख ले, सूँघ ले या खा ले- वह सब जूठन माना जाता है। ‘अमेध्यम्’- रज-वीर्य से पैदा हुए मांस, मछली, अंडा आदि महान अपवित्र पदार्थ, जो मुर्दा हैं और जिनको छूने मात्र से स्नान करना पड़ता है।[2] ‘अपि च’- इन अव्ययों के प्रयोग से उन सब पदार्थों को ले लेना चाहे जो शास्त्रनिषिद्ध हैं। जिस वर्ण, आश्रम के लिए जिन-जिन पदार्थों का निषेध है, उस वर्ण आश्रम के लिए उन-उन पदार्थों को निषिद्ध माना गया है; जैसे मसूर, गाजर, शलगम आदि। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मदिरापान करने वाले को शास्त्रों में महापापी कहा गया है- स्तेनो हिरण्यस्य सुरां पिबंश्च गुरोस्तल्पमावसन्ब्रह्महा चैते पतन्ति चत्वारः पश्चमश्चाचरंस्तैरिति। (छान्दोग्योपनिषद् 5।10।9) अर्थात स्वर्ण चोरी करने वाला, मदिरा (शराब) पीने वाला, गुरुपत्नीगमन करने वाला, ब्राह्मण की हत्या करने वाला- ये चारों महापापी हैं और इनका संग करने वाला पाँचवाँ महापापी है। इससे सिद्ध होता है कि मदिरापान सर्वथा निन्दनीय, मांसाहार से भी अधिक निन्दनीय और पतन करने करने वाला है। गंगा जी सबको शुद्ध करने वाली हैं। परंतु यदि गंगा जी में मदिरा का पात्र डाल दिया जाए तो वह शुद्ध नहीं होता। जब मदिरा का पात्र भी (जिसमें मदिरा डाली जाती है) इतना अशुद्ध हो जाता है, तब मदिरा पीने वाला कितना अशुद्ध हो जाता होगा- इसका कोई ठिकाना नहीं है। मदिरा के निर्माण में असंख्य जीवों की हत्या होती है। मदिरापान से होने वाली सबसे भयंकर हानि यह है कि इससे अंतःकरण में रहने वाले धर्म के अंकुर नष्ट हो जाते हैं। तात्पर्य है कि मनुष्य के भीतर जो धार्मिक भावनाएँ रहती हैं, धर्म की रुचि, संस्कार रहते हैं, उनको मदिरापान नष्ट कर देता है। इससे मनुष्य महान पतन की तरफ चला जाता है।
- ↑ यहाँ तामस भोजन में ‘अमेध्य’ शब्द का प्रयोग करके भगवान मानो इन चीजों का नाम भी लेना नहीं चाहते।
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