श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
यहाँ शंका हो सकती है कि आसुरी योनियों को प्राप्त हुए मनुष्यों को तो उन योनियों में भगवान को प्राप्त करने का अवसर ही नहीं है और उनमें वह योग्यता भी नहीं है, फिर भगवान ने ऐसा क्यों कहा कि वे मेरे को प्राप्त न करके उससे भी अधम गति में चले जाते हैं? इसका समाधान यह है कि भगवान का ऐसा कहना आसुरी योनियों को प्राप्त होने से पूर्व मनुष्य शरीर को लेकर ही है। तात्पर्य है कि मनुष्य शरीर को पाकर, मेरी प्राप्ति का अधिकार पाकर भी वे मनुष्य मेरी प्राप्ति न करके जन्म-जन्मान्तर में आसुरी योनियों को प्राप्त होते हैं। इतना ही नहीं, वे उन आसुरी योनियों से भी नीचे कुम्भीपाक आदि घोर नरकों में चले जाते हैं। भगवत्प्राप्ति के अथवा कल्याण के उद्देश्य से दिए गए मनुष्य शरीर को पाकर भी मनुष्य कामना, स्वार्थ एवं अभिमान के वशीभूत होकर चोरी-डकैती, झूठ-कपट, धोखा, विश्वासघात, हिंसा आदि जिन कर्मों को करते हैं, उनके दो परिणाम होते हैं- (1) बाहरी फल-अंश और (2) भीतरी संस्कार-अंश। दूसरों को दुःख देने पर उनका (जिनको दुःख दिया गया है) तो वही नुकसान होता है, जो प्रारब्ध से होने वाला है; परंतु जो दुःख देते हैं, वे नया पाप करते हैं, जिसका फल नरक उन्हें भोगना ही पड़ता है। इतना ही नहीं, दुराचारों के द्वारा जो नये पाप होने के बीज बोये जाते हैं अर्थात उन दुराचारों के द्वारा अहंता में जो दुर्भाव बैठ जाते हैं, उनसे मनुष्य का बहुत भयंकर नुकसान होता है। जैसे, चोरी रूप कर्म करने से पहले मनुष्य स्वयं चोर बनता है; क्योंकि वह चोर बनकर ही चोरी करेगा और चोरी करने से अपने में (अहंता में) चोर का भाव दृढ़ हो जाएगा।[1] |
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श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
- ↑ दुर्भावों से दुराचार पैदा होता है और दुराचारों से दुर्भाव पुष्ट होते हैं।
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