श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
व्याख्या- ‘आसुरीं योनिमापन्ना मामप्राप्यैव कौन्तेय’- पीछे के श्लोक में भगवान ने असुर मनुष्यों को बार-बार पशु-पक्षी आदि की योनियों में गिराने की बात कही। अब उसी बात को लेकर भगवान यहाँ कहते हैं कि मनुष्य जनम में मुझे प्राप्त करने का दुर्लभ अवसर पाकर भी वे आसुर मनुष्य मेरी प्राप्ति न करके पशु, पक्षी आदि आसुरी योनियों में चले जाते हैं और बार-बार उन आसुरी योनियों में ही जन्म लेते रहते हैं। ‘मामप्राप्यैव’ पद से भगवान पश्चाताप के साथ कहते हैं कि अत्यंत कृपा करके मैंने जीवों को मनुष्य शरीर देकर उन्हें अपना उद्धार करने का मौका दिया और यह विश्वास किया कि ये अपना उद्धार अवश्य कर लेंगे; परंतु ये नराधम इतने मूढ़ और विश्वासघाती निकले कि जिस शरीर से मेरी प्राप्ति करनी थी, उससे मेरी प्राप्ति न करके उलटे अधम गति को चले गए। मनुष्य शरीर प्राप्त हो जाने के बाद वह कैसा ही आचरण वाला क्यों न हो अर्थात दुराचारी से दुराचारी क्यों न हो, वह भी यदि चाहे तो थोड़े से थोड़े समय में[1] और जीवन के अंतकाल में[2] भी भगवान को प्राप्त कर सकता है। कारण कि ‘समोऽहं सर्वभूतेषु’[3] कहकर भगवान ने अपनी प्राप्ति सबके लिए अर्थात प्राणिमात्र के लिए खुली रखी है। हाँ, यह बात हो सकती है कि पशु-पक्षी आदि में उनको प्राप्त करने की योग्यता नहीं है; परंतु भगवान की तरफ से तो किसी के लिए भी मना नहीं है; परंतु भगवान की तरफ से तो किसी के लिए भी मना नहीं है। ऐसा अवसर सर्वथा प्राप्त हो जाने पर भी ये आसुर मनुष्य भगवान को प्राप्त न करके अधम गति में चले जाते हैं, तो इनकी इस दुर्गति को देखकर परम दयालु प्रभु दुःखी होते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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