श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
व्याख्या- ‘तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्’- सातवें अध्याय के पंद्रहवें और नवें अध्याय के बारहवें श्लोक में वर्णित आसुरी-संपदा का इस अध्याय के सातवें से अठारहवें श्लोक तक विस्तार से वर्णन किया गया। अब आसुरी-संपदा के विषय का इन दो (उन्नीसवें-बीसवें) श्लोकों में उपसंहार करते हुए भगवान कहते हैं कि ऐसे आसुर मनुष्य बिना ही कारण सबसे वैर रखते हैं और सबका अनिष्ठ करने पर तुले रहते हैं। उनके कर्म बड़े क्रूर होते हैं, जिनके द्वारा दूसरों की हिंसा आदि हुआ करती है। ऐसे क्रूर, निर्दयी, हिंसक मनुष्य नराधाम अर्थात् मनुष्यों में महान् नीच हैं- ‘नराधमान्।’ उनको मनुष्यों में नीच कहने का मतलब यह है कि नरकों में रहने वाले और पशु-पक्षी आदि (चौरासी लाख योनियाँ) अपने पूर्वकर्मों का फल भोगकर शुद्ध हो रहे हैं और ये आसुर मनुष्य अन्याय-पाप करके पशु-पक्षी आदि से भी नीचे की ओर जा रहे हैं। इसलिए इन लोगों का संग बहुत बुरा कहा गया है- नरकों का वास बहुत अच्छा है, पर विधाता (ब्रह्मा) हमें दुष्ट का संग कभी न दे; क्योंकि नरकों के वास से तो पाप नष्ट होकर शुद्धि आती है, पर दुष्टों के संग से अशुद्धि आती है, पाप बनते हैं, पाप के ऐसे बीज बोये जाते हैं, जो आगे नरक तथा चौरासी लाख योनियाँ भोगने पर भी पूरे नष्ट नहीं होते। प्रकृति के अंश शरीर में राग अधिक होने से आसुरी संपत्ति अधिक आती है; क्योंकि भगवान ने कामना (राग) को संपूर्ण पापों से हेतु बताया है।[2] उस कामना के बढ़ जाने से आसुरी संपत्ति बढ़ती ही चली जाती है। जैसे धन की अधिक कामना बढ़ने से झूठ, कपट, छल आदि दोष विशेषता से बढ़ जाते हैं और वृत्तियों में भी अधिक-से-अधिक धन कैसे मिले- ऐसा लोभ बढ़ जाता है। फिर मनुष्य अनुचित रीति से, छिपाव से, चोरी से धन लेने की इच्छा करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज