श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
‘जनाः’[1] से लेकर ‘नराधमान्’[2] पद तक बीच में आए हुए श्लोक में कहीं भी भगवान ने मनुष्यवाचक शब्द नहीं दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि मनुष्य में आसुरी-संपत्ति का त्याग करने की तथा दैवी-संपत्ति को धारण करने की योग्यता है, तथापि जो मनुष्य होकर भी दैवी-संपत्ति को धारण न करके आसुरी संपत्ति को बनाए रखते हैं, वे मनुष्य कहलाने लायक नहीं हैं। वे पशुओं से और नारकीय प्राणियों से भी गये-बीते हैं; क्योंकि पशु और नारकीय प्राणियों तो पापों का फल भोगकर पवित्रता की तरफ जा रहे हैं और ये आसुर स्वभाव वाले मनुष्य जिस पुण्य से मनुष्य शरीर मिला है, उसको नष्ट करके और यहाँ नये-नये पाप बटोरकर पशु-पक्षी आदि योनियों में तथा नरकों की तरफ जा रहे हैं। अतः उनकी दुर्गति का वर्णन इसी अध्याय के सोलहवें और उन्नीसवें श्लोकों में किया गया है। भगवान ने आसुर मनुष्यों के जितने लक्षण बताये हैं, उनमें उनको पशु आदि का विशेषण न देकर ‘अशुभान्’, ‘नराधमान्’ विशेषण दिए हैं। कारण यह कि पशु आदि इतने पापी नहीं हैं और उनके दर्शन से पाप भी नहीं लगता, पर आसुर मनुष्यों में विशेष पाप होते हैं और उनके दर्शन से पाप लगता है, अपवित्रता आती है। इसी अध्याय के बाईसवें श्लोक में ‘नरः’ पद देकर यह बताते हैं कि जो काम-क्रोध-लोभरूप नरक के द्वारों से छूटकर अपने कल्याण का आचरण करता है, वही मनुष्य कहलाने लायक है। पाँचवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में भी ‘नरः’ पद से इसी बात को पुष्ट किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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