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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
- प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः ।
- न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ।।7।।
- अर्थ- आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति को नहीं जानते और उनमें न बाह्यशुद्धि, न श्रेष्ठ आचरण तथा न सत्य-पालन ही होता है।
व्याख्या- ‘प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः’- आजकल के उच्छृंखल वातावरण, खान-पान, शिक्षा आदि के प्रभाव से प्रायः मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति को अर्थात किसमें प्रवृत्त होना चाहिए और किससे निवृत्त होना चाहिए- इसको नहीं जानते और जानना चाहते भी नहीं। कोई इसको बताना चाहे, तो उसकी मानते नहीं, प्रत्युत उसकी हँसी उड़ाते हैं, उसे मूर्ख समझते हैं और अभिमान के कारण अपने को बड़ा बुद्धिमान समझते हैं। कुछ लोग (प्रवृत्ति और निवृत्ति को) जानते भी हैं, पर उन पर आसुरी-संपदा का विशेष प्रभाव होने से उनकी विहित कार्यों में प्रवृत्ति और निषिद्ध कार्यों से निवृत्ति नहीं होती। इस कारण सबसे पहले आसुरी संपत्ति आती है- प्रवृत्ति और निवृत्ति को न जानने से।
प्रवृत्ति और निवृत्ति को कैसे जाना जाए? इसे गुरु के द्वारा, ग्रंथ के द्वारा, विचार के द्वारा जाना जा सकता है। इसके अलावा उस मनुष्य पर कोई आफत आ जाए, वह मुसीबत में फँस जाए, कोई विचित्र घटना घट जाए, तो विवेक शक्ति जाग्रत हो जाती है। किसी महापुरुष के दर्शन हो जाने से पूर्व संस्कारवश मनुष्य की वृत्ति बदल जाती है अथवा जिन स्थानों पर बड़े-बड़े प्रभावशाली संत हुए हैं, उन स्थलों में, तीर्थों में जाने से भी विवेक शक्ति जाग्रत हो जाती है।
विवेक शक्ति प्राणिमात्र में रहती है। परंतु पशु-पक्षी आदि योनियों में इसको विकसित करने का अवसर, स्थान और योग्यता नहीं है एवं मनुष्य में उसको विकसित करने का अवसर, स्थान और योग्यता भी है। पक्षी-पक्षी आदि में वह विवेक-शक्ति केवल अपने शरीर-निर्वाह तक ही सीमित रहती है, पर मनुष्य उस विवेक शक्ति से अपना और अपने परिवार का तथा अन्य प्राणियों का भी पालन-पोषण कर सकता है, और दुर्गुण-दुराचारों का त्याग करके सद्गुण-सदाचारों को भी ला सकता है। मनुष्य इसमें सर्वथा स्वतंत्र है; क्योंकि वह साधन-योनी है। परंतु पशु-पक्षी इसमें स्वतंत्र नहीं हैं; क्योंकि वह भोग योनि है।
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