श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
‘सत्यम्’- अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके केवल दूसरों के हित की दृष्टि से जैसा सुना, देखा, पढ़ा, समझा और निश्चय किया है, उससे न अधिक न कम- वैसा का वैसा प्रिय शब्दों में कह देना ‘सत्य’ है। सत्यस्वरूप परमात्मा को पाने और जानने का एकमात्र उद्देश्य हो जाने पर साधक के द्वारा मन, वाणी और क्रिया से असत्य-व्यवहार नहीं हो सकता। उसके द्वारा सत्य-व्यवहार, सबके हित का व्यवहार ही होता है। जो सत्य को जानना चाहता है, वह सत्य के ही सम्मुख रहता है। इसलिए उसके मन-वाणी शरीर से जो क्रियाएँ होती हैं, वे सभी उत्साहपूर्वक सत्य की ओर चलने के लिए ही होती हैं। ‘अक्रोधः’- दूसरों का अनिष्ट करने के लिए अंतःकरण में जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है, वह ‘क्रोध’ है। पर जब तक अंतःकरण में दूसरों का अनिष्ट करने की भावना पैदा नहीं होती, तब तक वह ‘क्षोभ’ है, क्रोध नहीं। परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य से साधन करने वाला मनुष्य अपना अपकार करने वाले का भी अनिष्ट नहीं करना चाहता। वह इस बात को समझता है कि अनिष्ट करने वाला व्यक्ति वास्तव में हमारा अनिष्ट कभी कर ही नहीं सकता। यह जो हमें दुःख देने के लिए आया है, यह हमने पहले कोई गलती की है, उसी का फल है। अतः यह हमें शुद्ध कर रहा है, निर्मल कर रहा है। जैसे, डॉक्टर किसी रुग्ण अंग को काटता है, तो उस पर रोगी क्रोध नहीं करता, प्रत्युत उसे अच्छा मानता है, ठीक मानता है। उसके रुग्ण अंग को काटना तो उसे ठीक मानता है। उसके रुग्ण अंग को काटना तो उसे ठीक करने के लिए ही है। ऐसे ही साधक को कोई अहित की भावना से किसी तरह से दुःख देता है, तो उसमें यह भाव पैदा होता है कि वह मेरे को शुद्ध, निर्मल बनाने में निमित्त बन रहा है; अतः उस पर क्रोध कैसे? वह तो मेरा उपकार कर रहा है और भविष्य के लिए सावधान कर रहा है कि जो गलती पहले की है, आगे वैसे गलती न करूँ। |
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