श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
साधक की साधना में कोई बाधा डाल दे, तो उसे उस पर क्रोध नहीं आता और न उसके मन में उसके अहित की भावना (हिंसा) ही पैदा होती है। हाँ, परमात्मा की ओर चलने में बाधा पड़ने से उसको दुःख हो सकता है, पर वह दुःख भी सांसारिक दुःख की तरह नहीं होता। साधक को बाधा लगती है, तो वह भगवान को पुकारता है कि ‘हे नाथ! मेरी कहाँ भूल हुई, जिससे बाधा लग रही है!’ ऐसा विचार करके उसे रोना आ सकता है; पर बाधा डालने वाले के प्रति क्रोध, द्वेष नहीं हो सकता। बाधा लगने पर साधक में तत्परता और सावधानी आती है। यदि उसमें बाधा डालने वाले के प्रति द्वेष होता है, तो जितने अंश में द्वेष-वृत्ति रहती है, उतने अंश में तत्परता की कमी है, अपने साधन का आग्रह है। साधक में एक तत्परता होती है और एक आग्रह होता है। तत्परता होने से साधन में रुचि रहती है और आग्रह होने से साधन में राग रहता है। रुचि होने से अपने साधन में कहाँ-कहाँ कमी है, उसका ज्ञान होता है और उसे दूर करने की शक्ति आती है, तथा उसे दूर करने की चेष्टा भी होती है। परंतु राग होने से साधन में विघ्न डालने वाले के साथ द्वेष होने की संभावना रहती है। वास्तव में देखा जाए तो साधन में हमारी रुचि कम होने से ही दूसरा हमारे साधन में बाधा डालता है। अगर साधन में हमारी रुचि कम न हो तो दूसरा हमारे साधन में बाधा नहीं डालेगा, प्रत्युत यह सोचकर उपेक्षा कर देगा कि यह जिद्दी है, मानेगा नहीं; अतः जैसा चाहे, वैसा करने दो। |
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