श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
‘मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनंच’- किसी बात की भूली हुई जानकारी का (किसी कारण से) पुनः प्राप्त होना ‘स्मृति’ कहलाती है। स्मृति और चिन्तन- दोनों में फर्क है। नयी बात का ‘चिन्तन’ और पुरानी बात की ‘स्मृति’ होती है। अतः चिन्तन संसार का और स्मृति परमात्मा की होती है; क्योंकि संसार पहले नहीं था और परमात्मा पहले (अनादिकाल) से हैं। स्मृति में जो शक्ति है, वह चिन्तन में नहीं है। स्मृति में कर्तापन का भाव कम रहता है, जबकि चिन्तन में कर्तापन का भाव अधिक रहता है। एक स्मृति की जाती है और एक स्मृति होती है। जो स्मृति की जाती है, वह ‘बुद्धि’ में और जो होती है, वह ‘स्वयं’ में होती है। होने वाली स्मृति जडता से तत्काल संबंध-विच्छेद करा देती है। भगवान यहाँ कहते हैं कि यह (होने वाली) स्मृति मेरे से ही होती है। परमात्मा का अंश होते हुए भी जब भूल से परमात्मा से विमुख हो जाता है और अपना संबंध संसार से मानने लगता है। इस भूल का नाश होने पर ‘मैं भगवान का ही हूँ, संसार का नहीं’ ऐसा साक्षात अनुभव हो जाना ही ‘स्मृति’ है।[1] स्मृति में कोई नया ज्ञान या अनुभव नहीं होता, प्रत्युत हमारा वास्तविक संबंध है। इस वास्तविकता का प्रकट होना ही स्मृति का प्राप्त होना है। जीव में निष्कामभाव (कर्मयोग), स्वरूप-बोध (ज्ञानयोग) और भगवत्प्रेम (भक्तियोग)- तीनों स्वतः विद्यमान हैं। जीव को (अनादिकाल से) इनकी स्मृति हो गयी है। एक बार इनकी स्मृति हो जाने पर फिर विस्मृति नहीं होती। कारण यह स्मृति ‘स्वयं’ में जाग्रत होती है। ‘बुद्धि’ में होने वाली लौकिक स्मृति (बुद्धि के क्षीण होने पर) नष्ट भी हो सकती है, पर ‘स्वयं’ में होने वाली स्मृति कभी नष्ट नहीं होती।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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