श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
हृदय में निरंतर स्थित रहने के कारण परमात्मा वास्तव में मनुष्य मात्र को प्राप्त हैं; परंतु जडता (संसार) से माने हुए संबंध के कारण जडता की तरफ ही दृष्टि रहने से नित्यप्राप्त परमात्मा अप्राप्त प्रतीत हो रहे हैं अर्थात उनकी प्राप्ति का अनुभव नहीं हो रहा है। जडता से सर्वथा संबंध-विच्छेद होते ही सर्वत्र विद्यमान (नित्यप्राप्त) परमात्मतत्त्व स्वतः अनुभव में आ जाता है। परमात्मप्राप्ति के लिए जो सत्-कर्म, सत्-चर्चा और सत्-चिन्तन किया जाता है, उसमें जडता (असत्) का आश्रय रहता ही है। कारण है कि जडता (स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीर) का आश्रय लिए बिना इनका होना संभव ही नहीं है। वास्तव में इनकी सार्थकता जडता से संबंध-विच्छेद कराने में ही है। जडता से संबंध-विच्छेद तभी होगा, जब ये (सत्-कर्म, सत्-चर्चा और सत्-चिन्तन) केवल संसार के हित के लिए ही किए जाएँ, अपने लिए नहीं। किसी विशेष साधन, गुण, योग्यता, लक्षण आदि के बदले में परमात्मप्राप्ति होगी- यह बिलकुल गलत धारणा है। किसी मूल्य के बदले में जो वस्तु प्राप्त होती है, वह उस मूल्य से कम मूल्य की ही होती है- यह सिद्धांत है। अतः यदि किसी विशेष साधन, योग्यता आदि के द्वारा ही परमात्मप्राप्ति का होना माना जाए, तो परमात्मा उस साधन, योग्यता आदि से कम मूल्य के (कमज़ोर) ही सिद्ध होते हैं, जबकि परमात्मा किसी से कम मूल्य के नहीं हैं।[1] इसलिए वे किसी साधन आदि से खरीदे नहीं जा सकते। इसके सिवाय अगर किसी मूल्य (साधन, योग्यता आदि) के बदले में परमात्मा की प्राप्ति मानी जाए, तो उनसे हमें लाभ भी क्या होगा? क्योंकि उनसे अधिक मूल्य की वस्तु (साधन आदि) तो हमारे पास पहले से है ही! जैसे सांसारिक पदार्थ कर्मों से मिलते हैं, ऐसे परमात्मा की प्राप्ति कर्मों से नहीं होती; क्योंकि परमात्मप्राप्ति किसी कर्म का फल नहीं है। प्रत्येक कर्म की उत्पत्ति अहंभाव से होती है और परमात्मप्राप्ति अहंभाव के मिटने पर होती है। कारण कि अहंभाव कृति (कर्म) है और परमात्मा कृतिरहित हैं। कृतिरहित तत्त्व को किसी कृति से कैसे प्राप्त किया जा सकता है- ‘नास्त्यकृतः कृतेन।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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