श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
अकृतात्मा और अचेतस पुरुष करने में तो ध्यान, स्वाध्याय, जप आदि सब कुछ करते हैं, पर अंतःकरण में जडता (सांसारिक भोग और संग्रह) का महत्त्व रहने के कारण उन्हें तत्त्व का अनुभव नहीं होता। यद्यपि ऐसे पुरुषों के द्वारा किया गया यत्न भी निष्फल नहीं जाता, तथापि तत्त्व का अनुभव उन्हें वर्तमान में नहीं होता। वर्तमान में तत्त्व का अनुभव जडता का सर्वथा त्याग होने पर ही हो सकता है। जिसका आश्रय लिया जाए, उसका त्याग नहीं हो सकता- यह नियम है। अतः शरीर, मन, बुद्धि आदि जड पदार्थों का आश्रय लेकर साधक जडता का त्याग नहीं कर सकता। इसके सिवाय मन, बुद्धि आदि जड पदार्थों को लेकर साधन करने वाले में सूक्ष्म अहंकार बना रहता है, जो जडता का त्याग होने पर ही निवृत्त होता है। जडता का त्याग करने का सुगम उपाय है- एकमात्र भगवान का आश्रय लेना अर्थात ‘मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं’ इस वास्तविकता को स्वीकार कर लेना; इस पर अटल विश्वास कर लेना। इसके लिए यत्न या अभ्यास करने की भी जरूरत नहीं है। वास्तविक बात को दृढ़तापूर्वक स्वीकारमात्र कर लेने की जरूरत है। संबंध- पंद्रहवें अध्याय में पाँच-पाँच श्लोकों के चार प्रकरण हैं। उनमें से यह तीसरा प्रकरण बारहवें से पंद्रहवें श्लोक तक का है, जिसमें छठा श्लोक भी लेने से पाँच श्लोक पूरे हो जाते हैं। यह तीसरा प्रकरण विशेष रूप से भगवान के प्रभाव और महत्त्व को प्रकट करने वाला है। छठे श्लोक में जो विषय (परमधाम को सूर्य, चंद्र और अग्नि प्रकाशित नहीं कर सकते) स्पष्ट नहीं हो पाया था, उसी का स्पष्ट विवेचन अब भगवान आगे के श्लोक में करते हैं। |
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