श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
प्रत्येक साधक के लिए उपर्युक्त चारों बातें अत्यंत महत्त्वपूर्ण और तत्काल लाभदायक हैं। साधक को ये चारों बातें दृढ़ता से मान लेनी चाहिए। समस्त साधनों का यह सार साधन है। इसमें किसी योग्यता, अभ्यास, गुण आदि की भी जरूरत नहीं है। ये बातें स्वतः सिद्ध और वास्तविक हैं, इसलिए इसको मानने के लिए सभी योग्य हैं, सभी पात्र हैं, सभी सामर्थ्य हैं। शर्त यही है कि वे एकमात्र परमात्मा को ही चाहते हों। ‘यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः’- जिन्होंने अपना अंतःकरण शुद्ध नहीं किया है, उन पुरुषों को यहाँ ‘अकृतात्मानः’ कहा गया है। सत्-असत् के ज्ञान (विवेक) को महत्त्व न देने के कारण ऐसे पुरुषों को ‘अचेतसः’ कहा गया है। जिनके अंतःकरण में संसार के व्यक्ति, पदार्थ आदि का महत्त्व बना हुआ है और जो शरीरादि को अपना मानते हुए उनसे सुख-भोग की आशा रखते हैं, ऐसे सभी पुरुष ‘अकृतात्मानः’ ‘अचेतसः’ हैं। ऐसे पुरुष तत्त्व की प्राप्ति तो चाहते हैं, पर वे शरीर, मन, बुद्धि आदि जड (प्राकृत) पदार्थों की सहायता से चेतन परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना चाहते हैं। परमात्मा जड पदार्थों की सहायता से नहीं, प्रत्युत जड के त्याग (संबंध-विच्छेद) से मिलते हैं। इस श्लोक में ‘यतन्तः’ पद दो बार आया है। यह भाव यह है कि यत्न करने में समानता होने पर भी एक (ज्ञानी) पुरुष तो तत्त्व का अनुभव कर लेता है, दूसरा (मूढ़) नहीं कर पाता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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