श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
ज्ञानी मनुष्य का स्थूल शरीर तो छूटेगा ही, पर दूसरे शरीर को प्राप्त करना तथा रागबुद्धि से विषयों का सेवन करना उसके द्वारा नहीं होते। दूसरे अध्याय के तेरहवें श्लोक मे भगवान ने कहा है कि जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, परंतु उस विषय में ज्ञानी मनुष्य मोहित अथवा विकार को प्राप्त नहीं होता। कारण यह है कि वह ज्ञानी मनुष्य ज्ञानरूप नेत्रों के द्वारा यह देखता है कि जन्म-मृत्यु आदि सब क्रियाएँ या विकार परिवर्तनशील शरीर में ही हैं, अपरिवर्तनशील स्वरूप में नहीं। स्वरूप इन विकारों से सब समय सर्वथा निर्लिप्त रहता है। शरीर को अपना मानने तथा उससे सुख लेने की आशा रखने से ही विमूढ़ मनुष्यों को तादात्म्य के कारण ये विकार स्वयं में होते प्रतीत होते हैं। विमूढ़ मनुष्य आत्मा को गुणों से युक्त देखते हैं और ज्ञान नेत्रों वाले मनुष्य आत्मा को गुणों से रहित वास्तविक रूप से देखते हैं।
संबंध- पूर्वश्लोक में वर्णित तत्त्व को जो पुरुष यत्न करने पर जानते हैं, उनमें क्या विशेषता है; और जो यत्न करने पर भी नहीं जानते, उनमें क्या कमी है- इसको आगे के श्लोक में बताते हैं।
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