श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
मूढ़लोग भोग और संग्रह में इतने आसक्त रहते हैं कि शरीरादि पदार्थ नित्य रहने वाले नहीं है- यह बात सोचते नहीं। भोग भोगने का क्या परिणाम होगा उस ओर वे देखते ही नहीं। भगवान ने गीता के सत्रहवें अध्याय में जहाँ सात्त्विक, राजस और तामस पुरुषों को प्रिय लगने वाले आहारों का वर्णन किया है, वहाँ सात्त्विक आहार के परिणाम का वर्णन पहले किया गया है; राजस आहार के परिणाम का वर्णन पहले किया गया है; राजस आहार के परिणाम का वर्णन अंत में किया गया है और तामस आहार के परिणाम का वर्णन ही नहीं किया गया है।[2] इसका कारण यह है कि सात्त्विक मनुष्य कर्म करने से पहले उसके परिणाम (फल) पर दृष्टि रखता है; राजस मनुष्य पहले सहसा काम कर बैठता है, फिर परिणाम चाहे जैसा आए; परंतु तामस मनुष्य तो परिणाम की तरफ दृष्टि ही नहीं डालता। इसी प्रकार यहाँ भी ‘विमूढा नानुपश्यन्ति’ पद देकर भगवान मानो यह कहते हैं कि मोहग्रस्त मनुष्य तामस ही हैं; क्योंकि मोह तमोगुण का कार्य है। वे विषयों का सेवन करते समय परिणाम पर विचार ही नहीं करते। केवल भोग भोगने और संग्रह करने में ही लगे रहते हैं। ऐसे मनुष्यों का ज्ञान तमोगुण से ढका रहता है। इस कारण वे शरीर और आत्मा के भेद को नहीं जान सकते। ‘पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः’- प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति- कोई भी स्थिर नहीं है अर्थात दृश्यमात्र निरंतर आदर्श में जा रहा है- ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव होना ही ज्ञानरूप चक्षुओं से देखना है। परिवर्तन की ओर दृष्टि होने से अपरिवर्तनशील तत्त्व में स्थित स्वतः होती है; क्योंकि नित्य परिवर्तनशील पदार्थ का अनुभव अपरिवर्तनशील तत्त्व को ही होता है। यहाँ ऐसा नहीं समझना चाहिए कि ज्ञानी मनुष्य का भी स्थूल शरीर से निकलकर दूसरे शरीर को प्राप्त होना तथा भोग भोगना होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज