श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
गीता में ‘स्थूल द्वंद्व’ को ‘मोहकलिलम्’[1] और ‘सूक्ष्म द्वंद्व’ को ‘श्रुतिविप्रतिपन्ना’[2][3] पदों से कहा गया है। साधक के अंतःकरण में जब तक संसार (जडता) का संबंध या महत्त्व रहता है, तभी तक ये द्वंद्व रहते हैं। ‘स्थूल द्वंद्व’ संसार को विशेष रूप से सत्ता और महत्ता देता है। अतः ‘स्थूल द्वंद्व’ को मिटाना बहुत जरूरी है। जब तक मूढ़ता रहती है, तभी तक द्वंद्व रहते हैं। वास्तव में देखा जाए तो अपने में द्वंद्व मानना ही मूढ़ता है। राग-द्वेष, सुख-दुःख, हर्ष-शोक आदि द्वंद्व अंतःकरण में होते हैं, स्वयं (अपने स्वरूप) में नहीं। अंतःकरण जड है, और ‘स्वयं’ चेतन एवं जड का प्रकाशक है। अतः अंतःकरण से ‘स्वयं’ का संबंध है ही नहीं। केवल मान्यता से ही यह संबंध है ही नहीं। केवल मान्यता से ही यह संबंध प्रतीत होता है। यह सभी का अनुभव है कि सुख-दुःखादि द्वंद्वों के आने पर हम तो वही रहते हैं। ऐसा नहीं होता कि सुख आने पर हम और होते हैं तथा दुःख आने पर और। परंतु मूढ़तावश इन सुख-दुःखादि से मिलकर सुखी और दुःखी होने लगते हैं। यदि हम इन आने-जाने वालों से न मिलकर अपने स्वरूप में स्थित (स्वस्थ) रहे, तो सुख-दुःखादि द्वंद्वो से स्वतः रहित हो जाएंगे। इसलिए साधक को बदलने वाली अर्थात आने-जाने वाली अवस्थाओं (सुख-दुःख, हर्ष-शोकादि) पर दृष्टि न रखकर कभी न बदलने वाले अपने स्वरूप पर ही दृष्टि रखनी चाहिए, जो सब अवस्थाओं से अतीत है। गीता में भगवान ने राग-द्वेष आदि द्वंद्वों से मुक्त होने का बड़ा सुगम उपाय बताया है कि अनुकूलता-प्रतिकूलता में राग-द्वेष छिपे हुए हैं। उनसे बचने के लिए साधक को केवल इतनी सावधानी रखनी है कि वह इनके वश में न हो।[4] तात्पर्य यह है कि राग-द्वेष दीखने पर भी साधक इनके वशीभूत होकर तद्नुसार क्रिया न करे; क्योंकि क्रिया करने से यह ये पुष्ट होते हैं। ‘गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्’- आने-जाने वाले पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा या चेष्टा करना तथा उनसे सुखी-दुःखी होना ‘मूढ़ता’ है। वास्तव में संसार निरंतर परिवर्तनशील है और परमात्मा नित्य रहने वाला है। परमात्मा की सत्ता से ही संसार की सत्ता दीखती है। परंतु अविनाशी परमात्मा और विनाशी संसार की सत्ता को मिलाकर ‘संसार है’ ऐसा मान लेना ‘मूढ़ता’ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 2:52
- ↑ ‘श्रुतिविप्रतिपन्न’ का अर्थ है- शास्त्रों में ज्ञान, कर्म और भक्ति; द्वैत, अद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत आदि सिद्धांत; विष्णु, राम, कृष्ण, शिव, शक्ति, गणेश आदि उपास्यदेव; सकाम और निष्काम-भाव इत्यादि भिन्न-भिन्न विचारों को देखकर किसी एक विचार पर अपना निश्चय या निर्णय नहीं कर सकना अर्थात किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाना।
- ↑ गीता 2:53
- ↑ गीता 3:34
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