श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
‘द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैः’- वे भक्त सुख-दुःख, हर्ष-शोक, राग-द्वेष आदि द्वंद्वो से रहित हो जाते हैं। कारण कि उनके सामने अनुकूल-प्रतिकूल जो भी परिस्थिति आती है, उसको वे भगवान का ही दिया हुआ प्रसाद मानते हैं। उनकी दृष्टि केवल भगवत्कृपा पर ही रहती है, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति पर नहीं। अतः ‘जो कुछ होता है, वह हमारे प्यारे प्रभु का ही मंगलमय विधान है’ ऐसा भाव होने पर उनके द्वंद्व सुगमता पूर्वक मिट जाते हैं। भगवान सबके सुहृद् हैं- ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’।[1] उनके द्वारा अपने अंश- (जीवात्मा) का कभी अहित हो ही नहीं सकता। उनके मंगलयम विधान से जो भी परिस्थिति हमारे सामने आती है, वह हमारे परमहित के लिए ही होती है। इसलिए भक्त भगवान के विधान में परम प्रसन्न रहते हैं। शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि को अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति का ज्ञान होने पर भी ‘ऐसी परिस्थिति क्यों आ गयी? ऐसी परिस्थिति आती रहे’ आदि विकार, द्वंद्व उनमें नहीं होते। विशेष बात द्वंद्व (राग-द्वेषादि) ही विषमता है, जिनसे सब प्रकार के पाप पैदा होते हैं। अतः विषमता का त्याग करने के लिए साधक को नाशवान पदार्थों का माने हुए महत्त्व का अंतःकरण से निकाल देना चाहिए। द्वंद्व के दो भेद हैं-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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