श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
ये तादात्म्य, ममता और कामना रूप मूल अंतःकरण में इतनी दृढ़ता से जमे हुए हैं कि पढ़ने, सुनने तथा विचार-विवेचन करने पर भी सर्वथा नष्ट नहीं होते। साधक प्रायः कहा करते हैं कि सत्संग-चर्चा सुनते समय तो इन दोषों के त्याग की बात अच्छी और सुगम लगती है; परंतु व्यवहार में आने पर ऐसा होता नहीं। इनको छोड़ना तो चाहते हैं, पर ये छूटते नहीं। इन दोषों के न छूटने में खास कारण है- सांसारिक सुख लेने की इच्छा। साधक से भूल यह होती है कि वह सांसारिक सुख भी लेना चाहता है और साथ ही दोषों से भी बचना चाहता है। जैसे लोभी व्यक्ति विषयुक्त लड्डुओं की मिठास को भी लेना चाहे और साथ विष से बचना चाहे! ऐसा कभी संभव नहीं है। संसार से कभी किञ्चिन्तमात्र भी सुख की आशा न रखने पर इसका दृढ़मूल स्वतः नष्ट हो जाता है। दूसरी बात यह है कि ‘तादात्म्य, ममता और कामना का मिटना बहुत कठिन है’- साधक की यह मान्यता ही इन दोषों को मिटने नहीं देती। वास्तव में तो ये स्वतः मिट रहे हैं। किसी भी मनुष्य में ये दोष सदा नहीं रहते; उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं; किंतु अपनी मान्यता के कारण ये स्थायी दीखते हैं। अतः साधक को चाहिए कि वह इन दोषों के मिटने को कभी कठिन न माने। ‘असंगशस्त्रेण दृढ़ेन छित्वा’- भगवान कहते हैं कि यद्यपि इस संसारवृक्ष के अवान्तर मूल बहुत दृढ़ हैं, फिर भी इनको दृढ़ असंगतारूप शस्त्र के द्वारा काटा जा सकता है। किसी भी स्थान, व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति आदि के प्रति मन में आकर्षण, सुख-बुद्धि का होना और उनके संबंध से अपने-आपको बड़ा तथा सुखी मानना; पदार्थों के प्राप्त होने अथवा संग्रह होने पर प्रसन्न होना- यही ‘संग’ कहलाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे नारी गृहद्वारि सुवाः श्मशाने। देहश्चितायां परलोग मागें धर्मानुगो गच्छति जीव एकः ।।
‘शरीर को छोड़ते समय धन तिजोरी में पड़ा रह जाता है; पशु जहाँ-तहां बँधे रह जाते हैं; स्त्री घर के दरवाजे तक ही साथ देती हैं; पुत्र श्मशान तक साथ देते हैं तथा शरीर चिता तक ही साथ रहता है। उसके बाद परलोक के मार्ग में केवल धर्म ही जीव के साथ जाता है।’ - ↑ गीता 17:3
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