श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
विशेष बात इस संसार के आदि, मध्य और अंत का पता आज तक कोई वैज्ञानिक नहीं लगा सका और न ही लगा सकता है। संसार से संबंध रखते हुए अथवा सांसारिक भोगों को भोगते हुए संसार के आदि, मध्य और अंत को ढूँढ़ना चाहे, तो कोल्हू के बैल की तरह उम्रभर घूमते रहने पर भी कुछ हाथ आने का नहीं। वास्तव में इस संसार के आदि, मध्य और अंत का पता लगाने की जरूरत भी नहीं है। जरूरत संसार से अपने माने हुए संबंध का विच्छेद करने की ही है। संसार अनादि-सान्त है या अनादि-अनन्त है अथवा प्रतीतिमात्र है, इत्यादि विषयों पर दार्शनिकों में अनेक मतभेद हैं; परंतु संसार के साथ हमारा संबंध असत् है, जिसका विच्छेद करना आवश्यक है- इस विषय पर सभी दार्शनिक एकमत हैं। संसार से संबंध-विच्छेद करने का सुगम उपाय है- संसार से प्राप्त (मन, बुद्धि, इंद्रियाँ, शरीर, धन, संपत्ति आदि) संपूर्ण सामग्री को ‘अपनी’ और ‘अपने लिए’ न मानते हुए उसको संसार की ही सेवा में लगा देना। सांसारिक स्त्री, पुत्र, मान, बड़ाई, धन, संपत्ति, आयु, नीरोगता आदि कितने ही प्राप्त हो जाएं; यहाँ तक कि संसार के समस्त भोग एक ही मनुष्य को मिल जाएं, तो भी उनसे मनुष्य को तृप्ति नहीं हो सकती; क्योंकि जीव स्वयं अविनाशी है और संसारिक भोग नाशवान है। नाशवान से अविनाशी कैसे तृप्त हो सकता है? ‘अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलम्’- संसार को ‘सुविरूढ़मूलम्’ कहने का तात्पर्य यह है कि तादात्म्य, ममता और कामना के कारण यह संसार (प्रतिष्ठारहित होने पर भी) दृढ़ मूलों वाला प्रतीत हो रहा है। व्यक्ति, पदार्थ, क्रिया आदि में राग, ममता होने से सांसारिक बंधन अधिक-से-अधिक दृढ़ होता चला जाता है। जिन पदार्थों, व्यक्तियों में राग, ममता का घनिष्ठ संबंध हो जाता है, उनको मनुष्य अपना स्वरूप ही मानने लग जाता है। जैसे, धन में ममता होने से उसकी प्राप्ति में मनुष्य को बड़ी प्रसन्नता होती है और ‘मैं बड़ा धनवान हूँ’- ऐसा अभिमान हो जाता है। |
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