श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
इस श्लोक में ‘ब्रह्मणः’, ‘अमृतस्य’ आदि पदों में ‘राहोः शिरः’ की तरह अभिन्नता में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया गया है। तात्पर्य है कि ‘राहु का सिर’- ऐसा जो प्रयोग होता है, उसमें राहु अलग है और सिर अलग है- ऐसी बात नहीं है, प्रत्युत राहु का नाम ही सिर है और सिर का नाम ही राहु है। ऐसे ही यहाँ ब्रह्म, अविनाशी अमृत आदि ही भगवान कृष्ण हैं और भगवान कृष्ण ही ब्रह्म, अविनाशी अमृत आदि हैं। ब्रह्म कहो, चाहे कृष्ण कहो, और कृष्ण कहो, चाहे ब्रह्म कहो; अविनाशी अमृत कहो, चाहे कृष्ण कहो, और कृष्ण कहो चाहे अविनाशी अमृत कहो; शाश्वत धर्म कहो, चाहे कृष्ण कहो और कृष्ण कहो चाहे शाश्वत धर्म कहो; ऐकान्तिक सुख कहो चाहे कृष्ण कहो; और कृष्ण कहो चाहे ऐकान्तिक सुख कहो; एक ही बात है। इसमे की आधार-आधेय भाव नहीं है, एक ही तत्त्व है। इसलिए भगवान की उपासना करने से ब्रह्म की प्राप्ति होती है- यह बात ठीक ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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