श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । अर्थ- क्योंकि ब्रह्म, अविनाशी अमृत, शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक सुख का आश्रय मैं ही हूँ। व्याख्या- ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्’- मैं ब्रह्म की प्रतिष्ठा, आश्रय हूँ- ऐसा कहने का तात्पर्य ब्रह्म से अपनी अभिन्नता बताने में है। जैसे जलती हुई अग्नि साकार है और काष्ठ आदि में रहने वाली अग्नि निराकार है- ये अग्नि के दो रूप हैं, पर तत्त्वतः अग्नि एक ही है। ऐसे ही भगवान साकार-रूप से हैं और ब्रह्म निराकार-रूप से है- ये दो रूप साधकों की उपासना की दृष्टि से हैं, पर तत्त्वतः भगवान और ब्रह्म एक ही हैं, दो नहीं। जैसे भोजन में एक सुगन्ध होती है और एक स्वाद होता है; नासिका की दृष्टि से सुगन्ध होती है और रसना की दृष्टि से स्वाद होता है, पर भोजन तो एक ही है। ऐसे ही ज्ञान की दृष्टि से ब्रह्म है और भक्ति की दृष्टि से भगवान हैं, पर तत्त्वतः भगवान और ब्रह्म एक ही हैं। भगवान कृष्ण अलग हैं और ब्रह्म अलग है- यह भेद नहीं है; किंतु भगवान कृष्ण ही ब्रह्म हैं और ब्रह्म ही भगवान कृष्ण है। गीता में भगवान ने अपने लिए ‘ब्रह्म’ शब्द का भी प्रयोग किया है- ‘ब्रह्मण्याधाय कर्माणि’[1] और अपने को ‘अव्यक्तमूर्ति’ भी कहा है- ‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’।[2] तात्पर्य है कि साकार और निराकार एक ही है, दो नहीं। ‘अमृतस्याव्ययस्य च’- अविनाशी अमृत का अधिष्ठान मैं ही हूँ और मेरा ही अधिष्ठान अविनाशी अमृत है। तात्पर्य है कि अविनाशी अमृत और मैं- ये दो तत्त्व नहीं हैं, प्रत्युत एक ही हैं। इसी अविनाशी अमृत की प्राप्ति को भगवान ने ‘अमृतमश्रुते’[3] पद से कहा है। ‘शाश्वतस्य च धर्मस्य’- सनातन धर्म का आधार मैं हूँ और मेरा आधार सनातन धर्म है। तात्पर्य है कि सनातन धर्म और मैं- ये दो नहीं हैं, प्रत्युत एक ही हैं। सनातन धर्म मेरा ही स्वरूप है।[4] गीता में अर्जुन ने भगवान को शाश्वत धर्म का गोप्ता (रक्षक) बताया है।[5] भगवान भी अवतार लेकर सनातन धर्म की रक्षा किया करते हैं।[6] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 5:10
- ↑ गीता 9:4
- ↑ 13।12; 14।20
- ↑ हिंदू (सनातन), बौद्ध, ईसाई और मुस्लिम- ये चार धर्म वर्तमान समय में संसार में मुख्य माने जाते हैं। इन चारों में से एक-एक धर्म को मानने वालों की संख्या करोड़ों की है। इनमें बौद्ध, ईसाई और मुस्लिम-धर्म को चलाने वाले क्रमशः बुद्ध, ईसा और मोहम्मद माने जाते हैं। ये तीनों ही धर्म अर्वाचीन हैं। परंतु हिंदू धर्म किसी मनुष्य के द्वारा चलाया हुआ नहीं है अर्थात यह किसी मानवीय बुद्धि की उपज नहीं है। यह तो विभिन्न ऋषियों द्वारा किया गया अन्वेषण है, खोज है। खोज उसी की होती है, जो पहले से ही मौजूद हो। हिंदू धर्म अनादि, अनन्त एवं शाश्वत है। जैसे भगवान शाश्वत (सनातन) हैं, ऐसे ही हिंदू धर्म भी शाश्वत है। इसीलिए भगवान ने यहाँ (गीता 14:27 में) सनातन हिंदू धर्म को अपना स्वरूप बताया है। जब-जब हिंदू धर्म का ह्रास होता है, तब-तब भगवान अवतार लेकर इसकी संस्थापना करते हैं (गीता 4।7-8)। तात्पर्य है कि भगवान भी इसकी संस्थापना, रक्षा करने के लिए ही अवतार लेते हैं, इसको बनाने के लिए, उत्पन्न करने के लिए नहीं। वास्तव में अन्य सभी धर्म तथा मत-मतान्तर भी इसी सनातन धर्म से उत्पन्न हुए हैं। इसलिए उन धर्मों में मनुष्यों के कल्याण के लिए जो साधन बताये गये हैं, उनको भी हिंदू धर्म की ही देन मानना चाहिए। अतः उन धर्मों में बताये गए अनुष्ठानों का भी निष्काम भाव से कर्तव्य समझकर पालन किया जाए, तो कल्याण होने में संदेह नहीं मानना चाहिए। प्राणिमात्र के कल्याण के लिए जितना गहरा विचार हिंदू धर्म में किया गया है, उतना दूसरे धर्मों मे नहीं मिलता। हिंदू-धर्म के सभी सिद्धांत पूर्णतः वैज्ञानिक और कल्याण करने वाले हैं।
- ↑ गीता 11:18
- ↑ गीता 4:8
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