श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
जैसे भगवान के द्वारा सात्त्विक, राजस और तामस कार्य होते हुए भी वे गुणातीत ही रहते हैं[1], ऐसे ही गुणातीत महापुरुष के अपने कहलाने वाले अंतःकरण में सात्त्विक, राजस और तामस वृत्तियों के आने पर भी वह गुणातीत ही रहता है।[2] अतः भगवान की उपासना करना और गुणातीत महापुरुष का संग करना- ये दोनों ही निर्गुण होने से साधक को गुणातीत करने वाले हैं। संबंध- पाँचवें अठारहवें श्लोक तक प्रकृति के कार्य गुणों का परिचय देकर अब आगे के दो श्लोकों में स्वयं को तीनों गुणों से अतीत अनुभव करने का वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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